दल्ली और राजहरा लौह अयस्क की खदानों के लिए मशहूर हैं। भारत सरकार के उपक्रम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड यानी सेल के भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए 1955 से दल्ली राजहरा की खदानों से ही लौह अयस्क का निर्यात होता रहा है।लेकिन दल्ली राजहरा 70 के दशक में तब चर्चा में आया, जब यहां शंकर गुहा नियोगी ने अपने मजदूर संगठन का काम शुरू किया। नियमित मजदूरों की तरह ही बोनस समेत दूसरी सुविधाओं के लिए पहली बार छत्तीसगढ खान मजदूर संगठन के बैनर तले 10 हजार से अधिक मजदूर सडक पर उतरे।आंदोलन परवान चढा और शंकर गुहा नियोगी के सपने भी। महिलाओं और युवाओं के लिए तो नियोगी ने कार्यक्रम बनाया ही, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी श्रमिक संगठन ने काम शुरू किया।एक महिला मजदूर साथी कुसुमबाई को प्रसव के समय इलाज नहीं मिला और उनकी मौत हो गई तो नियोगी ने महिलाओं के प्रसव संबंधी इलाज के लिए एक डिस्पेंसरी खोलने का निर्णय लिया।109 मजदूरों का स्वास्थ्य संगठन बना और 1980 के आसपास एक बंद पडी गैराज में डिस्पेंसरी शुरू की गई।उस वक्त कोलकाता से चिकित्सा की डिग्री लेकर मजदूरों के बीच काम करने पहुंचे डॉक्टर शैवाल जना के बालों में अब सफेदी आ गई है पर अपने पुराने दिन याद कर उनकी आंखों में चमक आ जाती है।शैवाल जना कहते हैं, "हमारा दो नारा था। पहला- मेहनतकशों के स्वास्थ्य के लिए मेहनतकशों का अपना कार्यक्रम और दूसरा-स्वास्थ्य के लिए संघर्ष। हम गांव-गांव जाते और लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता फैलाने का काम करते थे।"
मजदूरों का अस्पताल
फिर मजदूरों के पैसे से डिस्पेंसरी के लिए कमरे बनने शुरू हुए। दिन या रात की पाली में खदान मजदूर अस्पताल की बिल्डिंग बनाने में मदद करते थे। मजदूरों के पैसे से ही बिल्डिंग के लिये जरूरी सामान खरीदे जाते।
भिलाई इस्पात संयंत्र से सेवानिवृत्त होने के बाद शहीद अस्पताल में काम करने वाले पुनाराम कोठवार बताते हैं कि नियोगी जी चाहते थे कि अस्पताल में सारी सुविधाएं हों, लेकिन वह यह देखने के लिए नहीं रहे।
28 सितंबर 1991 को शंकर गुहा नियोगी की हत्या हो गई। कुछ साल बाद लगा कि सब कुछ खत्म हो गया पर मजदूर फिर एकजुट हुए। हक के लिए फिर लडाई शुरू हुई और लडाई का एक हिस्सा यह अस्पताल भी था।
नियोगी नहीं हैं, लेकिन उनके सपने का अस्पताल तैयार हो गया। अस्पताल में जगह-जगह नियोगी की तस्वीरें टंगी हैं और उनके संदेश भी।
70 के दशक में आंदोलन के दौरान मारे गए 11 मजदूरों की याद में बने इस शहीद अस्पताल में आज हर दिन औसतन 250 नए मरीज ओपीडी पहुंचते हैं। अस्पताल के पास अपना सुविधायुक्त ऑपरेशन थिएटर हैं तो रेडियोलॉजी, पैथॉलाजी लैब समेत जांच और इलाज की अधिकांश सुविधाएं भी। अलग-अलग तरह के मरीजों के लिए अलग-अलग वार्ड तो हैं ही।
भिलाई इस्पात संयंत्र से सेवानिवृत्त होने के बाद शहीद अस्पताल में काम करने वाले पुनाराम कोठवार बताते हैं कि नियोगी जी चाहते थे कि अस्पताल में सारी सुविधाएं हों, लेकिन वह यह देखने के लिए नहीं रहे।
28 सितंबर 1991 को शंकर गुहा नियोगी की हत्या हो गई। कुछ साल बाद लगा कि सब कुछ खत्म हो गया पर मजदूर फिर एकजुट हुए। हक के लिए फिर लडाई शुरू हुई और लडाई का एक हिस्सा यह अस्पताल भी था।
नियोगी नहीं हैं, लेकिन उनके सपने का अस्पताल तैयार हो गया। अस्पताल में जगह-जगह नियोगी की तस्वीरें टंगी हैं और उनके संदेश भी।
70 के दशक में आंदोलन के दौरान मारे गए 11 मजदूरों की याद में बने इस शहीद अस्पताल में आज हर दिन औसतन 250 नए मरीज ओपीडी पहुंचते हैं। अस्पताल के पास अपना सुविधायुक्त ऑपरेशन थिएटर हैं तो रेडियोलॉजी, पैथॉलाजी लैब समेत जांच और इलाज की अधिकांश सुविधाएं भी। अलग-अलग तरह के मरीजों के लिए अलग-अलग वार्ड तो हैं ही।
फीस बस 5 रुपए
मरीजों से आरंभिक इलाज के लिए 5 रुपए लिए जाते हैं। अस्पताल में भर्ती होने पर रोज के पांच रुपए बिस्तर के लिए और 25 रुपए सेवा शुल्क के नाम पर लिए जाते हैं। अस्पताल में सर्जन समेत छह डॉक्टर नियमित तौर पर रहते हैं। मरीजों के लाने-ले जाने के लिए अस्पताल के पास अपनी एंबुलेंस भी है।
प्रसव के लिए पडोसी जिले कांकेर के कच्चे गांव से पहुंची सोना बाई नेताम के पति कहते हैं, "ऐसी सुविधा हमें और कहां मिलेगी। सरकारी अस्पतालों में तो आप धक्के खाते रहिए। डॉक्टर तो डॉक्टर, कोई नर्स भी आपको नहीं पूछेगी।"
शुरुआती दिनों में अस्पताल में केवल खदान मजदूर और उनके परिजन ही आते थे, अब आसपास के सौ किलोमीटर के दायरे के दूसरे लोग भी यहीं का रुख करते हैं।
अस्पताल का पूरा प्रबंधन 13 मजदूरों की कमेटी संभालती है। इसके अलावा अस्पताल में कार्यरत 76 दूसरे कर्मचारी भी इस प्रबंधन की आमसभा के सदस्य हैं।
अस्पताल की ज्य़ादातर नर्स और दूसरे कर्मचारी स्थानीय हैं, जिनके प्रशिक्षण का काम लगातार चलता रहता है। नर्सों को एक साल का प्रशिक्षण दिया जाता है, उसके बाद वे नर्सें अपनी सुविधानुसार ग्रामीण इलाकों में जाकर काम करती हैं।
दोर्रीठेमा गांव की दिव्या को आठ महीने हो गए और प्रशिक्षण के बाद वे कहीं और जाकर काम करना चाहती हैं। मगर पिछले 22 साल से अस्पताल में काम कर रहीं सुलेखा सिंह इस बारे में सोचती भी नहीं।
उन्हें हर महीने बीमा और भत्तों के अलावा किसी भी सरकारी कर्मचारी की तरह दूसरी सुविधाएं तो मिलती ही हैं, 10 हजार रुपए से ज्यादा वेतन भी मिलता है।
प्रसव के लिए पडोसी जिले कांकेर के कच्चे गांव से पहुंची सोना बाई नेताम के पति कहते हैं, "ऐसी सुविधा हमें और कहां मिलेगी। सरकारी अस्पतालों में तो आप धक्के खाते रहिए। डॉक्टर तो डॉक्टर, कोई नर्स भी आपको नहीं पूछेगी।"
शुरुआती दिनों में अस्पताल में केवल खदान मजदूर और उनके परिजन ही आते थे, अब आसपास के सौ किलोमीटर के दायरे के दूसरे लोग भी यहीं का रुख करते हैं।
अस्पताल का पूरा प्रबंधन 13 मजदूरों की कमेटी संभालती है। इसके अलावा अस्पताल में कार्यरत 76 दूसरे कर्मचारी भी इस प्रबंधन की आमसभा के सदस्य हैं।
अस्पताल की ज्य़ादातर नर्स और दूसरे कर्मचारी स्थानीय हैं, जिनके प्रशिक्षण का काम लगातार चलता रहता है। नर्सों को एक साल का प्रशिक्षण दिया जाता है, उसके बाद वे नर्सें अपनी सुविधानुसार ग्रामीण इलाकों में जाकर काम करती हैं।
दोर्रीठेमा गांव की दिव्या को आठ महीने हो गए और प्रशिक्षण के बाद वे कहीं और जाकर काम करना चाहती हैं। मगर पिछले 22 साल से अस्पताल में काम कर रहीं सुलेखा सिंह इस बारे में सोचती भी नहीं।
उन्हें हर महीने बीमा और भत्तों के अलावा किसी भी सरकारी कर्मचारी की तरह दूसरी सुविधाएं तो मिलती ही हैं, 10 हजार रुपए से ज्यादा वेतन भी मिलता है।
मुश्किलें
अस्पताल चलाने के लिए किसी तरह का फंड नहीं लिया जाता। सारा खर्च अस्पताल प्रबंधन और श्रमिक संगठन उठाता है पर अस्पताल के निदेशक शैवाल जना के सामने दो बडी समस्याएं हैं।
वह बताते हैं कि पिछले पांच साल से उनका अस्पताल ब्लड बैंक के लिए प्रयासरत है लेकिन सरकारी अनुमति नहीं मिली है। इस कारण रोज के दर्जन भर से ज्यादा ऑपरेशनों में मुश्किल आती है। नए कानून से भी वे परेशान हैं।
शैवाल जना कहते हैं, "सरकार नर्सिंग एक्ट लाने वाली है। इसके बाद दिक्कत यह होगी कि गांवों में प्रारंभिक उपचार के लिए हम जिन सैकडों लोगों को साल भर का प्रशिक्षण देते हैं, वह हमें बंद करना पडेगा। नतीजतन गांव के लोगों को प्रारंभिक उपचार के लिए भी अस्पताल तक आना पडेगा।"
वह बताते हैं कि पिछले पांच साल से उनका अस्पताल ब्लड बैंक के लिए प्रयासरत है लेकिन सरकारी अनुमति नहीं मिली है। इस कारण रोज के दर्जन भर से ज्यादा ऑपरेशनों में मुश्किल आती है। नए कानून से भी वे परेशान हैं।
शैवाल जना कहते हैं, "सरकार नर्सिंग एक्ट लाने वाली है। इसके बाद दिक्कत यह होगी कि गांवों में प्रारंभिक उपचार के लिए हम जिन सैकडों लोगों को साल भर का प्रशिक्षण देते हैं, वह हमें बंद करना पडेगा। नतीजतन गांव के लोगों को प्रारंभिक उपचार के लिए भी अस्पताल तक आना पडेगा।"
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