इसलिए जब हम बच्चों से पूछते हैं कि वह किसके जैसा बनना चाहते हैं, तो हम उससे अप्रत्यक्ष रूप से यह कह रहे होते हैं कि तुम जो हो जैसे हो, हमें स्वीकार्य नहीं हो |
और यहीं हम खो देते हैं उसे, जिसने हमारे घर में जन्म लिया था अपनी एक नई पहचान के साथ नई पहचान बनाने के लिए | फिर वह वैसा बनना चाहता है जैसा आप या दुनिया उसे देखना चाहते हैं, न कि वैसा, जैसा कि उसे होना चाहिए था |
बहुत ही कम लोग ऐसे हैं जो कह पाते हैं कि मैं वही हूँ जो मैं चाहता था |-विशुद्ध चैतन्य
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