यदि हम देखें तो सारे दर्शन, शास्त्र व सुविचार इसी सिद्धांत पर आधारित होते हैं कि व्यक्ति अपनी भावनाओं का दमन करे |
उदहारण के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को इतना तिरस्कृत किया गया है कि ये मानव के भाव न होकर किसी दूसरे ग्रह से आयातित भाव लगते हैं |
कई हज़ार वर्षों से इन पंचों की निंदा होती आ रही है लेकिन आज भी ये उतने ही प्रभाव व सामर्थ्य से विद्यमान है जितने कि जब लोग इनका नाम भी नहीं जानते थे तब रहे होंगे |
न जाने कितने तपस्वी और ब्रम्हचारी आये और चले गए लेकिन इनका आस्तित्व नहीं मिटा और न कभी मिटेगा | कितनों की दुकाने चल रहीं हैं इन्हीं पंचों के कारण और कितनों के तिजोरियां भर रहीं हैं इन्हीं पंचों के कारण |
दमन से समस्या का समाधान हो जाता तो अब तक हो गया होता लेकिन दमन समस्या का समाधान नहीं था | समाधान था समझना व जानना | समाधान था दिशा देना | लेकिन किसी ने दिशा नहीं दी केवल दमन सिखाया |
मैं मानता हूँ कि ये वे पाँच घोड़े हैं जो आपके जीवन को गति देते हैं यदि लगाम आपके हाथ में हो और घोड़ों को आपने साध रखा हो तो | इन पंचों से घृणा या तिरस्कार करने से आप कहीं नहीं पहुँचेंगे केवल एक ऐसा जीवन जियेंगे जिसमें आपका रथ बिना घोड़ों के एक जगह खड़ा रहेगा और आपके सामने से घुड़सवार निकलते जायेंगे और आप इस भ्रम में खुश होते रहेंगे कि ये लोग आगे जाकर गिरेंगे ही लेकिन हम नहीं गिरेंगे, कपड़ों में दाग नहीं लगेंगे |
ये पाँचों घोड़े आपको यश वैभव सुख समृद्धि.... सभी कुछ दिला सकते हैं यदि आप इनसे घृणा नहीं करते | लेकिन यही आपसे सबकुछ छीन सकते हैं यदि आपने लगाम छोड़ दी और ये पाँचों आप पर हावी हो गये तब | तब आप के सोचने समझने की शक्ति चली जायेगी और एक गुलाम का जीवन जीने को विवश हो जायेंगे |
आज भी बहुत से सभ्रांत महानुभाव मिलते हैं मुझे कि हम तो इन पंचों से बहुत दूर हैं लेकिन पाता हूँ कि वे भ्रम में जी रहें हैं कि वे दूर हैं | जबकि वे नहीं जानते कि वे गुलाम हो चुके हैं इतने कि उन्हें अपने सर पर खड़े पञ्च नहीं दिखाई पड़ रहे |
कई महानुभाव हैं जो मोह से स्वयं को मुक्त बताते हैं और पत्नी व बच्चों से भागते फिरते हैं | लेकिन धन व नाम के मोह में लिप्त होते हैं | ये मुर्ख नहीं जानते कि न धन किसी का सगा होता है और न ही नाम | ये दोनों ही दूसरों के होते हैं | धन आपके पास आता है जब कोई आपको देता है और उसके बदले आपसे कुछ लेता है | और आपके पास तब तक रहता है जब तक आप को किसी से कुछ बदले मैं न लेना हो | नाम आपका कभी होता ही नहीं वह भी केवल दूसरों के प्रयोग करने के लिए होता है जिससे कि वे आपको पुकार सकें | वर्ना अपने लिए तो नाम की कोई आवश्यकता ही नहीं होती | स्वयं को जानने के लिए नाम की नहीं ज्ञान की आवश्यकता होती है |
कितने महापुरुषों को देखा हूँ जिन्होंने कई वर्ष बिता दिए भजन कीर्तन करते हुए सन्यासी या साधू का जीवन बिताते हुए | लेकिन जरा से विरोध सहन करने का सामर्थ्य नहीं होता इनमें | कहते हैं कि हमने इतनी सारी साधनाएं की हुई हैं और काम क्रोध लोभ मोह पर विजय प्राप्त कर ली है | लेकिन मैं अजमाने के लिए कई बार उनके तर्कों को जानबूझ कर काटा तो ऐसे बिदके की जैसे ततैया ने डंक मारा हो | क्रोध इतना कि खड़े होकर चिल्लाना शुरू कर देते हैं और जब तक मोहल्ले के सौ लोगों से मेरी निंदा नहीं कर लेते एक निवाला भोजन का नहीं ले पाते | :)
इस प्रवचन का सार केवल इतना है कि स्वयं में आ जाइए | ये विद्वान् क्या कहते हैं और क्या नहीं उसे भूल जाइए | स्वयं से प्रश्न कीजिये कि ये पाँचों घोड़ों से आप घृणा करते हैं या प्रेम ? दोनों ही स्थिति में क्या आप इनसे परिचित हैं, या केवल किसी विद्वान् के सुविचार से प्रभावित होकर निर्णय ले रहें हैं ? यदि प्रेम करते हैं तो क्या आपके हाथ में है इनकी लगाम ? क्या ये पाँचों आपके आज्ञाकारी हैं ?
यदि आपके जीवन में कभी ऐसा क्षण आया है कि इन पाँचों में से किसी के कारण आपको अपमानित होना पड़ा या आपने कोई कीमती चीज खो दी तो उसके लिए शर्मिंदा होने की आवश्यकता नहीं है | जो हुआ वह अच्छा हुआ और अब आप अनुभवी व्यक्तियों की श्रेणी में आ चुके हैं | आपने वही खोया जो आपका नहीं था और जो आपका है वह तो आपके पास है ही और जो मिलना है वह तो मिलेगा ही | लेकिन आप उन लोगों से लाख गुना अच्छे हैं जो इन घोड़ों से डर कर जी रहें हैं | क्योंकि:

ज्ञानी जनों से निवेदन है कि पोस्ट को बिना समझे कमेन्ट न करें | -विशुद्ध चैतन्य
उदहारण के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को इतना तिरस्कृत किया गया है कि ये मानव के भाव न होकर किसी दूसरे ग्रह से आयातित भाव लगते हैं |
काम - सृष्टि का मूल केंद्र है लेकिन सर्वाधिक निन्दित भी है |
क्रोध - असहमति व अधिकार जताने का स्वाभाविक गुण लेकिन निन्दित है |
लोभ - प्रेरणा है जीवन में कुछ पाने का लेकिन निन्दित है |
मोह - अदृश्य बंधन है परिवार को बांधे रखने का लेकिन निन्दित है |
अहंकार - प्राकृतिक फल है किसी उपलब्धि का लेकिन निन्दित है |
कई हज़ार वर्षों से इन पंचों की निंदा होती आ रही है लेकिन आज भी ये उतने ही प्रभाव व सामर्थ्य से विद्यमान है जितने कि जब लोग इनका नाम भी नहीं जानते थे तब रहे होंगे |
न जाने कितने तपस्वी और ब्रम्हचारी आये और चले गए लेकिन इनका आस्तित्व नहीं मिटा और न कभी मिटेगा | कितनों की दुकाने चल रहीं हैं इन्हीं पंचों के कारण और कितनों के तिजोरियां भर रहीं हैं इन्हीं पंचों के कारण |
दमन से समस्या का समाधान हो जाता तो अब तक हो गया होता लेकिन दमन समस्या का समाधान नहीं था | समाधान था समझना व जानना | समाधान था दिशा देना | लेकिन किसी ने दिशा नहीं दी केवल दमन सिखाया |
मैं मानता हूँ कि ये वे पाँच घोड़े हैं जो आपके जीवन को गति देते हैं यदि लगाम आपके हाथ में हो और घोड़ों को आपने साध रखा हो तो | इन पंचों से घृणा या तिरस्कार करने से आप कहीं नहीं पहुँचेंगे केवल एक ऐसा जीवन जियेंगे जिसमें आपका रथ बिना घोड़ों के एक जगह खड़ा रहेगा और आपके सामने से घुड़सवार निकलते जायेंगे और आप इस भ्रम में खुश होते रहेंगे कि ये लोग आगे जाकर गिरेंगे ही लेकिन हम नहीं गिरेंगे, कपड़ों में दाग नहीं लगेंगे |
ये पाँचों घोड़े आपको यश वैभव सुख समृद्धि.... सभी कुछ दिला सकते हैं यदि आप इनसे घृणा नहीं करते | लेकिन यही आपसे सबकुछ छीन सकते हैं यदि आपने लगाम छोड़ दी और ये पाँचों आप पर हावी हो गये तब | तब आप के सोचने समझने की शक्ति चली जायेगी और एक गुलाम का जीवन जीने को विवश हो जायेंगे |
आज भी बहुत से सभ्रांत महानुभाव मिलते हैं मुझे कि हम तो इन पंचों से बहुत दूर हैं लेकिन पाता हूँ कि वे भ्रम में जी रहें हैं कि वे दूर हैं | जबकि वे नहीं जानते कि वे गुलाम हो चुके हैं इतने कि उन्हें अपने सर पर खड़े पञ्च नहीं दिखाई पड़ रहे |
कई महानुभाव हैं जो मोह से स्वयं को मुक्त बताते हैं और पत्नी व बच्चों से भागते फिरते हैं | लेकिन धन व नाम के मोह में लिप्त होते हैं | ये मुर्ख नहीं जानते कि न धन किसी का सगा होता है और न ही नाम | ये दोनों ही दूसरों के होते हैं | धन आपके पास आता है जब कोई आपको देता है और उसके बदले आपसे कुछ लेता है | और आपके पास तब तक रहता है जब तक आप को किसी से कुछ बदले मैं न लेना हो | नाम आपका कभी होता ही नहीं वह भी केवल दूसरों के प्रयोग करने के लिए होता है जिससे कि वे आपको पुकार सकें | वर्ना अपने लिए तो नाम की कोई आवश्यकता ही नहीं होती | स्वयं को जानने के लिए नाम की नहीं ज्ञान की आवश्यकता होती है |
कितने महापुरुषों को देखा हूँ जिन्होंने कई वर्ष बिता दिए भजन कीर्तन करते हुए सन्यासी या साधू का जीवन बिताते हुए | लेकिन जरा से विरोध सहन करने का सामर्थ्य नहीं होता इनमें | कहते हैं कि हमने इतनी सारी साधनाएं की हुई हैं और काम क्रोध लोभ मोह पर विजय प्राप्त कर ली है | लेकिन मैं अजमाने के लिए कई बार उनके तर्कों को जानबूझ कर काटा तो ऐसे बिदके की जैसे ततैया ने डंक मारा हो | क्रोध इतना कि खड़े होकर चिल्लाना शुरू कर देते हैं और जब तक मोहल्ले के सौ लोगों से मेरी निंदा नहीं कर लेते एक निवाला भोजन का नहीं ले पाते | :)
इस प्रवचन का सार केवल इतना है कि स्वयं में आ जाइए | ये विद्वान् क्या कहते हैं और क्या नहीं उसे भूल जाइए | स्वयं से प्रश्न कीजिये कि ये पाँचों घोड़ों से आप घृणा करते हैं या प्रेम ? दोनों ही स्थिति में क्या आप इनसे परिचित हैं, या केवल किसी विद्वान् के सुविचार से प्रभावित होकर निर्णय ले रहें हैं ? यदि प्रेम करते हैं तो क्या आपके हाथ में है इनकी लगाम ? क्या ये पाँचों आपके आज्ञाकारी हैं ?
यदि आपके जीवन में कभी ऐसा क्षण आया है कि इन पाँचों में से किसी के कारण आपको अपमानित होना पड़ा या आपने कोई कीमती चीज खो दी तो उसके लिए शर्मिंदा होने की आवश्यकता नहीं है | जो हुआ वह अच्छा हुआ और अब आप अनुभवी व्यक्तियों की श्रेणी में आ चुके हैं | आपने वही खोया जो आपका नहीं था और जो आपका है वह तो आपके पास है ही और जो मिलना है वह तो मिलेगा ही | लेकिन आप उन लोगों से लाख गुना अच्छे हैं जो इन घोड़ों से डर कर जी रहें हैं | क्योंकि:

"गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग मेंवो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले"--अलामा इक़बाल
ज्ञानी जनों से निवेदन है कि पोस्ट को बिना समझे कमेन्ट न करें | -विशुद्ध चैतन्य
काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के नाम तथाकथित धार्मिकजन धर्म की राजनेतिक करके अपनी महात्मागिरी बनाय रखे है !इससे ज्यादा इनके पास काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के विषय पर कोई ज्ञान नही है! एक धार्मिक कहेगा क्रोध सब दुखोका करण दूसरा कहेगा लोभ सब दुखो का करण है ! लेकिन काम क्रोध लोभ मोह अहंकार की विज्ञानं क्या है? उसके बारे कोई कुछ भी नही बोलगा ! यह काम क्रोध लोभ मोह अहंकार यदि तुम इसमें से एक को दबाते हो तब दूसरा मजबूत बन जाता है लेकिन यह काम क्रोध लोभ मोह अहंकार कभी समाप्त नही होते है !
जवाब देंहटाएंकाम क्रोध लोभ मोह अहंकार उसकी उत्पत्ति हमारे अंदर दबी हुई विकृत उर्जा से उत्पन्न होते है विकृत उर्जा अर्थात वह उर्जा जिसे हम गम्भीर सभ्य बने हुए दबाये बेठे है ! यह दूषित उर्जा उसके काम क्रोध लोभ मोह अहंकार परिणाम है ! उर्जा का सारस्वत नियम है की गंगा की तरह सदेव बहती रहे ! बहने वाली उर्जा हमेशा तरोताजी और पवित्र होती है ! जितनी उर्जा तुम अपने अंदर से बहार बहा सको उतने आप तरोताजा हल्के आनन्दयुक्त प्रसन्नपूर्व युक्त रह सकते है! जिसकी उर्जानिरतर बह रही है उसमे नई चेतना का उदय होता रहता है जो परमआनन्द अनुभूति है ! जिसकी उर्जा लगातार प्रेम रूप में बह रही है वह योगी सन्यासी बुद्ध है ! जिसने अपनी उर्जा को कुंजुस की तरह दबा रखी है उसमे यह सभाविक है की काम क्रोध लोभ मोह अहंकार बना रहेगा ! कितना भी काम क्रोध लोभ मोह अहंकार को मारने की कोशिश करो लेकिन वह नही मरेगा ! वह रूप बदलकर प्रकट होता रहेगा ! बहती हुई उर्जा काम क्रोध लोभ मोह अहंकार को जीतने का ही उपाय नही यह जीवन कीश्रेष्ट साधनाओ में से उर्जा का बहाव जीवन जीने का श्रेष्ठम साधन है !
osho की सभी ध्यान विधियों में उर्जा के बहाव पर ही जोर दिया गया है की जो उर्जा आपने अपने अंदर दबाई रखी है उसे बहता करो जब तक तुम्हारी उर्जा बहती नही है उससे पहले कोई योग दर्शन अध्यात्म समाधि परमआनन्द नही है ! और उर्जा बहाव का श्रेष्ट मार्ग है वह है मात्र प्रेम ! प्रेम तुम किसको करते हो वह गोण नही उर्जा निरंतर बहाव ही गोण है !
काम क्रोध लोभ मोह अहंकार अपने में दबी हुई के लक्ष्ण है गंदगी हमारी उर्जा में है ! काम क्रोध लोभ मोह अहंकार को मारने से कभी कोई योगी या सन्यासी नही बना है क्योकि काम क्रोध लोभ मोह अहंकार तो उस सडी दबी हुई उर्जा के कीड़े है और कीड़े को मारने से कोई समस्या हल नही होती है ! असली कीड़ो के बिज तो उस दबी हुई विकृत मलयुक्त उर्जा में मोजूद है! आप कितने ही योग आसन जप तप ध्यान कर लेना लेकिन जब तक यह दबी हुई बहार नही निकलती है तब तक काम क्रोध लोभ मोह अहंकार बने रहेंगे !