28 नवंबर 2014

पहले जब मैं बच्चा था यानि कई हज़ार साल पहले...


... तब मुझे लगता था कि समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों में जो भी ख़बरें दिखाई जाती हैं वे लोगों को जागरूक करने व राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर ही दिखाई जाती है | लेकिन अब जाकर समझ में आया कि वे उनका तो धंधा है और धन्धा करने वालों को दाम से मतलब होता है राष्ट्र, संस्कृति व नैतिकता से दूर दूर तक उनका कोई रिश्ता नहीं होता |

बहुत शोर मचा रखा था मीडिया वालों ने कि व्हाट्सअप ने सबको पीछे कर दिया या लोग आजकल केवल व्हाट्सएप का प्रयोग ही कर रहें हैं अधिक.. आदि इत्यादि | मैंने भी उनकी बात मानकर व्हाट्सएप में अकाउंट खोल लिया | उसमें ही नहीं, स्काइप, मायस्पेस और... दुनिया भर के साइट्स में | लेकिन सब बकवास लगे, केवल फेसबुक ही जिन्दा सा लगता है | लगता है कि दुनिया मरी हुई नहीं है... बाकी सभी तो मुर्दों की बस्ती....बस्ती भी है यह नहीं पता नहीं..|

तो यह आँकड़े जो ये लेकर आते हैं, नोटों पर आधारित होते होंगे | क्योंकि इनके आंकड़े और समाचार ही अजीबोगरीब होते हैं.... जैसे; "हीरोइन ने पत्रकार को घूर कर देखा... फलाने ने फलाने को चाँटा मारा....अपने बेडरूम में पति के साथ जाते हुए दिखी..... पाकिस्तान के होश उड़ गये, चाइना के पैरों तले की जमीन निकल गयी....मोदी ने दूरबीन से दूर की चीज देखी....शक्ति कपूर गोलगप्पे की दूकान में दिखे.... सन्नी देओल पंक्चर लगवाते दिखे....."

लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि यदि इन सब समाचारों के लिए यदि कोई पैसे नहीं देता तो ये लोग क्या करते ? क्योंकि बचपन से राष्ट्र व संस्कृति के लिए काम करना तो सीखा ही नहीं और डिग्री मिली है चापलूसी करके पैसे कैसे कमायें वाली संस्थान से | कभी ये लोग यह नहीं पूछते धर्म के ठेकेदारों और नेताओं से कि सड़कों में बच्चे लावारिस पड़े हुए हैं, उनके भविष्य के लिए जो नेता और धार्मिक संसथान कदम नहीं उठाते, उनके कारण धर्म संकट में क्यों नहीं पड़ता ? जो मंदिर-मस्जिद बनवाने के लिए खून खराबा करते हैं, वे इनके लिए घर बहाने के लिए खून न सही पसीना ही क्यों नहीं बहाते ?

इसलिए न्यूज़चैनल हो, समाचार पत्र हो, या कोई भी सोशल मीडिया, सबसे बेहतर है फेसबुक और ब्लोगर....यहाँ कम से कम फ़िल्टर करने का ऑप्शन तो है | -विशुद्ध चैतन्य

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

No abusive language please