20 जनवरी 2015

यदि तुम पैसों के लालच में यह काम कर रहे थे, तो तुम्हारी पूजा व्यर्थ हो गयी

कल रात मेरे कमरे में एक गहन मीटिंग बैठी जिसमें फरार पंडित की तनखा के ऊपर चर्चा चली | हमारे रसोइया जो कि पंडा भी हैं और पंडित जी की गैरहाजिरी में पूजा पाठ वही देखता है..... तो पंडित के ना आने पर उसकी तनखा पर अपना दावा ठोंक दिया |

वैसे भी तीन-चार दिन से वह पंडित की तनखा पर कुछ अधिक ही ध्यान रखे हुए था | कई बार कह चुका था कि पंडित की तनखा अलग निकाल कर रख लीजिये नहीं तो मेरे हाथ में दे दीजिये मैं हिसाब करूँगा उसका.......


तो रात में मैंने उससे पूछा की इस तनखा से तुम क्या क्या क्या खरीद सकते हो ?

वह चुप रहा

मैंने फिर पूछा, "कार, कोठी, बंगला..... कुछ भी ?"

वह बोला, "नहीं !"

उसकी गैर हाजिरी में तुम पूजा करते थे तो क्या सोचकर करते थे ? कि उसकी ड्यूटी तुम कर रहे हो, या ईश्वर में भक्ति थी इसलिए ?

वह चुप रहा |

मान लेते हैं कोई हत्यारा है | उसने किसी को मरने की सुपारी ली, काम ख़त्म करके वह भागा और पकड़ा गया | अब क्या तुम जाओगे उसका पैसा लेने ?

"नहीं !" वह बोला

"क्यों ?" मैंने पूछा

"फिर तो मैं भी गुनाहगार हो जाऊंगा और मुझे भी सजा मिलेगी " वह बोला

"बिलकुल ठीक ! इसी प्रकार वह पंडित, जिसकी जिम्मेदारी थी पूजा करने की वह बिना बताये गायब हो गया तो उसका पैसा भी शापित हो गया | उसके किये की सजा वह भुगतेगा लेकिन तुम अगर उसका पैसा ले लोगे तो तुम भी भुगतोगे | क्योंकि तुम आश्रम के स्थाई कर्मचारी हो और तुम पूजा करके आश्रम का सहयोग ही कर रहे थे | लेकिन यदि तुम पैसों के लालच में यह काम कर रहे थे, तो तुम्हारी पूजा व्यर्थ हो गयी | जो फल तुमको मिलना था वह तो समाप्त हो गया |

अब बोलो.. उसकी तनखा तुम्हें लेनी है या नहीं ?" मैंने फिर पूछा

"नहीं... मैं तो कह रहा था कि उस पंडित को इस महीने तनखा नहीं देना है... मुझे उसकी तनखा लेकर क्या करना है ?" उसने बात पलटी

मैंने मुस्कुरा कर कहा अब जाओ.... पूजा दिल से की जाती है, पैसों से नहीं | तुम पंडा होते हुए भी आश्रमवासी हो, और पंडितों वाले पूजा से ऊपर उठो और वास्तविक पूजा में मन लगाओ | नहीं तो यहाँ कितने पंडित हैं जो दुनिया भर में पूजा करवाते हैं लेकिन कई तरह की समस्याओं में घिरे रहते हैं | और तुम तो अभी खुद अपनी समस्याओं से निकल नहीं पा रहे... दूसरों की समस्या लेने के लिए परेशान होने लगे ?

वह सर झुका कर चला गया | लेकिन थोड़ी देर बाद फिर आया और बोला, "आपने ठीक कहा था.....ठाकुर तो अपने आप सबकुछ देता है | आज मेरे घर से फोन आया था कि कोई हमें बेल का पेड़ दान कर रहा है | आपसे पूछना था कि वह दान हमें लेना चाहिए या नहीं |"

मैंने कहा, "बिलकुल लो...किसने रोका है ? जब कोई स्वेच्छा से कुछ भी देता है, उसे स्वीकार लेना चाहिए | उस पेड़ को बेचकर जो भी मिले उसे तुम सभी भाई आपस में बाँट लेना | अब देखो... तुम्हें तो ईश्वर घर में आकर इस तनखा से तीन चार गुना देकर चला गया और तुम यहाँ इस तनखा पर गिद्ध दृष्टि जमाये बैठे थे ?"

"जी मैं समझ गया आपकी बात | अब दोबारा कभी नहीं होगा ऐसा |" यह कहकर वह चला गया | ~विशुद्ध चैतन्य

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