
बचपन में बच्चों को गुड्डे-गुड़ियों का बहुत शौक होता है | वे उन्हें बिलकुल घर के सदस्यों की तरह ही मानकर जीते हैं | उनके लिए कपड़े बनवाना, खाना खिलाना, दवा पिलाना...... सबकुछ और फिर उनकी शादी भी करवायी जाती है | उस समय वही एक दुनिया होती है बच्चों की जिसमें वे पूरी तरह से खो जाते हैं | लेकिन वही गुड्डे-गुड़ियों के खेल से ही वे पूर्वजन्मों के अपने संस्कारों को सहेज पाते हैं | वे समझ पाते हैं पारिवारिक मूल्यों और जिम्मेदारियों को | वे समझ पाते हैं भावनात्मक लगाव व प्रेम को | वे निखार पाते हैं अपनी कल्पना शक्ति को और यही कल्पना शक्ति भविष्य में उन्हें सहयोग करता है संबंधों को तरोताजा बनाए रखने में | लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं गुड्डे-गुड़ियों का खेल बचकाना लगने लगता है क्योंकि हम जीवंत संबंधो का आनंद लेने लगते हैं | अब हमारी जिम्मेदारियों वास्तविक हो जाती हैं और उनपर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है |
ठीक इसी प्रकार मूर्तियों और तस्वीरों का महत्व है | वे लोग जो मूर्तिपूजा के विरोध में हैं, वे लोग जो मूर्तिपूजकों की निंदा करते हैं, वे प्राचीन उन महान आत्माओं के प्रयोग व आविष्कारों का अपमान ही कर रहे होते हैं | वे उन लोगों में शामिल हैं, जो बच्चों को गुड्डे-गुड़ियों से नहीं खेलने देते या उनको ताने मारते हैं | क्योंकि ये मूर्तिपूजक विरोधी स्वयं मानसिक रूप से उन्नत नहीं हो पाते हैं, जबकि हमारे पूर्वज बहुत ही उन्नत थे | उन्होंने तभी समझ लिया था मूर्तियों के महत्व को |
जरा सोचिये कि जब हम कहते हैं कि ईश्वर है, स्वर्ग है, नरक है, पापियों को आग में जलाया जाता है, उल्टा लटकाया जाता है और पुण्य आत्माओं को अप्सराओं का नृत्य देखने मिलता है, सुरा और सुंदरी मिलते हैं....... ईश्वर आशीर्वाद देता है, ईश्वर नाराज होता है......तो फिर ईश्वर निराकार कैसे हो सकता है ? गुस्सा आना, स्तुति-भजन से प्रसन्न होने वाला जो भी है वह हमारी ही तरह होगा | निराकार कोई होगा तो क्रोधित या प्रसन्न कैसे हो सकता है ? यह बात क्या किसी के समझ में आ सकती है ? आज तक तो पंडित पुरोहितों के समझ में नहीं आयी तो किसी और के समझ में कैसे आ सकती है ?

इसलिए आइये और निंदा-निंदा खेलने से अच्छा है हम सभी की उन मान्यताओं का सम्मान करें जो सौहार्द व प्रेम का प्रतीक हैं और उनका बहिष्कार करें जो नफरत के बीज बोते हैं | उन सभी को अपने हृदय में स्थान दें जो सबके हित की कामना करते हैं और उनको अपने हृदय से बाहर करें, जो भय, आतंक, व परधर्म निंदा परम सुखं के सिद्धांत पर जीते हैं | वसंत पंचमी को हिन्दुओं का त्यौहार मान कर नहीं, भारतीयों का त्यौहार मानकर मनाइए | क्योंकि वसंत में जब फूल, पौधे व मौसम नयी ताजगी के साथ आती है तो वह कोई भेदभाव नहीं करती | आप किसी भी पंथ या सम्प्रदाय के हों, आपको तरोताजा करेगी ही | ~विशुद्ध चैतन्य
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