24 जनवरी 2015

सभी को वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ !

आज सरस्वती पूजा भी है लेकिन उतना उल्लास नहीं है, जितना कि काली-दुर्गा की पूजा में होता है या गणेशउत्सव में होता है | समय के साथ साथ ईश्वर और आराध्य भी बदलने लगते हैं क्योंकि स्वार्थ से निर्मित ईश्वर स्वार्थानुसार बदल दिए जाते हैं | अब लोगों को विद्या व संगीत की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितना कि धन और बल की | इसलिए लक्ष्मी, काली, दुर्गा, गणेश महान हो गये और सरस्वती बेचारी बच्चों की देवी बनकर रह गयी |
बचपन में बच्चों को गुड्डे-गुड़ियों का बहुत शौक होता है | वे उन्हें बिलकुल घर के सदस्यों की तरह ही मानकर जीते हैं | उनके लिए कपड़े बनवाना, खाना खिलाना, दवा पिलाना...... सबकुछ और फिर उनकी शादी भी करवायी जाती है | उस समय वही एक दुनिया होती है बच्चों की जिसमें वे पूरी तरह से खो जाते हैं | लेकिन वही गुड्डे-गुड़ियों के खेल से ही वे पूर्वजन्मों के अपने संस्कारों को सहेज पाते हैं | वे समझ पाते हैं पारिवारिक मूल्यों और जिम्मेदारियों को | वे समझ पाते हैं भावनात्मक लगाव व प्रेम को | वे निखार पाते हैं अपनी कल्पना शक्ति को और यही कल्पना शक्ति भविष्य में उन्हें सहयोग करता है संबंधों को तरोताजा बनाए रखने में | लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं गुड्डे-गुड़ियों का खेल बचकाना लगने लगता है क्योंकि हम जीवंत संबंधो का आनंद लेने लगते हैं | अब हमारी जिम्मेदारियों वास्तविक हो जाती हैं और उनपर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है |

ठीक इसी प्रकार मूर्तियों और तस्वीरों का महत्व है | वे लोग जो मूर्तिपूजा के विरोध में हैं, वे लोग जो मूर्तिपूजकों की निंदा करते हैं, वे प्राचीन उन महान आत्माओं के प्रयोग व आविष्कारों का अपमान ही कर रहे होते हैं | वे उन लोगों में शामिल हैं, जो बच्चों को गुड्डे-गुड़ियों से नहीं खेलने देते या उनको ताने मारते हैं | क्योंकि ये मूर्तिपूजक विरोधी स्वयं मानसिक रूप से उन्नत नहीं हो पाते हैं, जबकि हमारे पूर्वज बहुत ही उन्नत थे | उन्होंने तभी समझ लिया था मूर्तियों के महत्व को |

जरा सोचिये कि जब हम कहते हैं कि ईश्वर है, स्वर्ग है, नरक है, पापियों को आग में जलाया जाता है, उल्टा लटकाया जाता है और पुण्य आत्माओं को अप्सराओं का नृत्य देखने मिलता है, सुरा और सुंदरी मिलते हैं....... ईश्वर आशीर्वाद देता है, ईश्वर नाराज होता है......तो फिर ईश्वर निराकार कैसे हो सकता है ? गुस्सा आना, स्तुति-भजन से प्रसन्न होने वाला जो भी है वह हमारी ही तरह होगा | निराकार कोई होगा तो क्रोधित या प्रसन्न कैसे हो सकता है ? यह बात क्या किसी के समझ में आ सकती है ? आज तक तो पंडित पुरोहितों के समझ में नहीं आयी तो किसी और के समझ में कैसे आ सकती है ?

यही कारण था कि हमारे पूर्वजों ने सभी को स्वस्थ व उन्नत मानसिकता के साथ आध्यात्म को समझने और उससे जोड़े रखने के लिए ये सुंदर चेहरों की कल्पना की | एक माध्यम बनाया लोगों को प्रकृति के महत्व को समझाने के लिए | जैसे सरस्वती पूजा, वसंत के आगमन का सन्देश है और साथ ही घरों को स्वच्छ व उल्लासित रखने का आयोजन भी | इसी बहाने हम आपस में मिलते हैं, अपना सुख दुःख बाँटते हैं | वहीँ यदि हम कहें कि ईश्वर निराकार है तो लोगों को समझने में कठिनाई हो जायेगी | जैसे इस्लाम के साथ हुआ | बाद में उन्होंने भी भारतीय सिद्धांतों को मिलाया और लोगों ने इस्लाम को सुफिज्म रूप में स्वीकार भी किया | वे भी दरगाहों में जगाकर सर झुकाने लगे और वे भी पत्थरों को पूजने लगे जैसे कि मक्का-मदीना में पत्थर को चूमकर उसका सम्मान करते हैं |

इसलिए आइये और निंदा-निंदा खेलने से अच्छा है हम सभी की उन मान्यताओं का सम्मान करें जो सौहार्द व प्रेम का प्रतीक हैं और उनका बहिष्कार करें जो नफरत के बीज बोते हैं | उन सभी को अपने हृदय में स्थान दें जो सबके हित की कामना करते हैं और उनको अपने हृदय से बाहर करें, जो भय, आतंक, व परधर्म निंदा परम सुखं के सिद्धांत पर जीते हैं | वसंत पंचमी को हिन्दुओं का त्यौहार मान कर नहीं, भारतीयों का त्यौहार मानकर मनाइए | क्योंकि वसंत में जब फूल, पौधे व मौसम नयी ताजगी के साथ आती है तो वह कोई भेदभाव नहीं करती | आप किसी भी पंथ या सम्प्रदाय के हों, आपको तरोताजा करेगी ही | ~विशुद्ध चैतन्य

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