
चूँकि मैं किसी से भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पाता इसलिए इस बात की भी चिंता नहीं करता कि कौन जुड़ा मुझसे और किसने मुझसे दूरी बना ली | न ही मैं अब किसी से जुड़ना चाहता हूँ क्योंकि मैं अब दूसरों के लिए या दूसरों के दिशानिर्देश पर स्वयं को नहीं बदल सकता | इतने वर्षों के एकांकी जीवन ने मुझे स्वयं में केन्द्रित कर दिया और साथ ही यह भी अनुभव दिया कि किसी के पीछे मत भागो, जो तुम्हारा है, वह तुम्हें अवश्य मिलेगा | चाहे इस जन्म में या अगले जन्म में लेकिन जल्दबाजी की कोई आवश्यकता नहीं है | जो सहयोगी हैं, वे सही समय में सही जगह पर मिल जायेंगे चाहे वे विरोधी के रूप में ही मिलें, चाहे वे ठग या लुटेरे के रूप में ही मिलें लेकिन उनका योगदान अमूल्य है आपके उन्नति के लिए |
कुछ महत्वपूर्ण बातें जो मैंने सीखे पिछले २५ वर्षों के एकांकी जीवन में:
- जिन चीजों को खो दिया उससे श्रेष्ठ मिलता है यदि हम आगे बढ़ते रहें |
- माँ-बाप को खोने के बाद बाप जैसे तो मिल भी जायेंगे, लेकिन माँ जैसा कोई नहीं मिलेगा जीवन में फिर कभी |
- सभी सम्बन्ध भौतिक स्वार्थ पर ही आधारित होते हैं, लेकिन जिन संबंधो में भावनाएं व समर्पण भी सम्मिलित हो जाते हैं, वे श्रेष्ठ सम्बन्ध होते हैं |
- आप अच्छे हैं या बुरे, वह महत्वपूर्ण नहीं है यदि आप के कारण किसी को कोई क्षति न होती हो |
- यदि आप किसी का थोड़ा भी सहयोग कर दें, तो वह न केवल सहयोग पाने वाले को सुख देता है, स्वयं को भी आनंद से भर देता है |
- दान या सहयोग देने के बाद जो हिसाब माँगता है, उसे दान या सहयोग नहीं, उधार मानिए और जल्द से जल्द उसे वापस लौटाइये |
- सहयोग लेने से पहले यह अवश्य देख लें, कि सामने वाला सहयोग कर रहा है या एहसान | यदि एहसान कर रहा है तो वह उधार देने वाले व्यक्ति से अधिक घातक है |
- व्यापारिक मानसिकता के व्यक्ति या ऐसे व्यक्ति जो हर समय पैसों का लेखा-जोखा ही बताते रहते हैं या चार-पांच रूपये के लिए भी झिक झिक करते हैं सब्जी वाले या रिक्शे वाले से, ऐसे लोगों से न तो कभी सहयोग लें और न ही कभी उधार लें | उनका एक रूपये भी आपके जीवन में अस्थिरता ला सकता है |

इसलिए मुझे नाम से ही पुकारें ताकि उन गुरुओं और स्वामियों का अपमान न होने पाए जिन्होंने कई वर्ष व्यतीत किये डिग्रियां बटोरने और शास्त्रों को रटने में | उन्होंने जो श्रम किया उसका फल है कि उनको स्वामी या गुरु की उपाधि मिली | मैंने तो कोई परिश्रम नहीं किया, बस ईश्वर सहयोगी रहा सदैव इसलिए इस लायक हो पाया कि अक्षरों और शब्दों को जोड़ पाता हूँ, वरना तो इस योग्य भी नहीं था मैं | ~विशुद्ध चैतन्य
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