12 मई 2015

शरीर और भावनाओं को अपनी आँखों की पलकों की तरह सहज सरल हो जाने दीजिये

कहते हैं कि कर्म कर फल की चिंता न कर |

लेकिन कर्म होगा तो फल तो होगा ही, अच्छा हो या बुरा हो | बिना फल के कोई कर्म नहीं होता और न ही बिना फल की इच्छा के कोई कर्म होता है | ये दोनों एक दूसरे से जुड़े ही हुए हैं |

किसान अच्छी फसल की कामना के लिए कर्म करता है खेतों पर, यदि उसे फसल न उगानी हो तो खेती ही क्यों करेगा ?

लोग नौकरी करते हैं तनखा के लिए, तनखा ही न मिले तो कोई नौकरी करेगा ही क्यों ?

लोग सेवा करते हैं पुण्य, धन या सम्मान पाने के लिए, यदि ये सब नहीं मिलेंगे तो कोई सेवा करेगा ही क्यों ?

लेकिन जब हम कर्म और फल के बंधन से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं, तब सजगता का मार्ग शुरू हो जाता है | तब हम कर्म नहीं करते, कर्म होते हैं स्वतः ही, जैसे आप कहीं जा रहे हों और कोई बच्चा राह में गिरता हुआ दिखे तो आप स्वतः ही उसे बढ़कर सम्भाल लेंगे | यह हुआ कर्म लेकिन आप करता नहीं हुए केवल आपका शरीर माध्यम हुआ उस अज्ञात का जिसने वह कर्म करवाया | आप तो किसी और ध्यान में खोये हुए थे तब आपको तो बाद में पता चला जब सब कुछ हो गया | यदि आप स्वयं करते तो आपका दिमाग मोल भाव करता, आपका दिमाग लाभ हानि देखता |

इसी प्रकार जब आप पर अचानक कोई आक्रमण कर दे, तब आपका शरीर तुरंत प्रतिक्रिया करता है आत्मरक्षार्थ | यहाँ भी आप करता नहीं है, केवल आपके शरीर का प्रयोग हुआ ठीक वैसे ही जैसे, आँखों की पलकें आपकी आखों कि सुरक्षा करती हैं आपके जाने बिना ही | आप में से कितने हैं जो अपनी पलकों को अपनी इच्छा से आकस्मिक परिस्थतियों में बंद कर पाते हैं ? शायद एक भी नहीं, आपको पता चलने से पहले ही आपकी आँखें स्वतः बंद हो जाती हैं कोई चीज आपकी आँखों की तरफ अचानक आये |

तो अपने शरीर और भावनाओं को अपनी आँखों की पलकों की तरह सहज सरल हो जाने दीजिये | यह कर्म और फल के झंझट में जब तक रहेंगे, उलझन बनी ही रहेंगी | अपने आस पास ही देख लीजिये या स्वयं को ही देख लीजिये.. आज से दस साल पहले आपकी आय कितनी थी और आज कितनी है.... शायद आज अधिक ही होगी, लेकिन समस्या वहीँ की वहीँ हैं | ~विशुद्ध चैतन्य

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

No abusive language please