18 जून 2015

भीतर से स्वाभाविक रूप से उत्पन्न प्रेम, सेवा का भाव बिना कहे भी सामने वाले को छू लेती है

अब आदत बहुत बिगड़ गयी है या दुनिया समझ में आ गयी है | अब कोई फर्क नहीं पड़ता यदि कोई मुझ पर बहुत ही प्रेम बरसाने का दिखावा करे या बहुत मेहनती व सेवा भाव का | अब सब एक तमाशा ही लगता है | अब प्रेम का कोई भाव आता, और न ही कोई दिल को छूता है | शायद ये नकली प्रेम, नकली सेवा, स्वार्थ से भरे परोपकार आसानी से पहचनने लगा हूँ मैं |

कुछ लोग बहुत ही सेवा भाव दिखाते हैं, शायद वह अपनी तरफ से श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहे होते हैं, लेकिन न जाने मेरे भीतर जो है, उसे कोई असर नहीं पड़ता | कई बार ऐसा भी होता है कि मेरा मन पिघल जाता है लेकिन मैं नहीं पिघलता | दोनों में तर्क होता है, दोनों अपना अपना पक्ष रखते हैं और फिर एक दिन पता चलता है कि जो सेवा भाव दिखा रहा था, प्रेम उड़ेल रहा था, वह नकली था | वह केवल अपने स्वार्थ वश ही यह सब कर रहा था और शहरी था, इसलिए एक अच्छा एक्टर भी था | लेकिन इन शहरियों को नहीं पता कि कि मैं जंगली हूँ और परखने की सीमा मेरी उनकी एक्टिंग की क्षमता से अधिक है | जहाँ उनकी एक्टिंग उनका साथ छोड़ देती है, वहाँ से मैं उसे परखना शुरू करता हूँ |
जब मैं शुरू शुरू में आया तब आश्रम के प्रमुख आदि बहुत ही मेहनत करते दीखते थे, पूजा पाठ, कीर्तन आदि में बहुत ही नियमितता मिलती थी.. लेकिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा, कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि कर्मकांड, आरती, पूजा, घंटी घड़ियाल... मेरे आध्यात्म का अंग नहीं थे | जबकि इनके लिए यही जीवन है और यही इनका अध्यात्म है | दो महीने में ही मैंने देखा कि उनका अध्यात्म अनियमित हो गया | फिर आरती में भी लोगों का आना कम हो गया और अब प्रमुखों ने भी आरती में बैठना बंद कर दिया | पूछा तो पता चला कि किसी के कमर में दर्द है तो किसी के पैर में दर्द है | दिन भर इन्हें इधर उधर घूमते देखता रहता हूँ लेकिन शाम होते ही बिस्तर पकड़ लेते हैं, जब तक आरती खत्म नहीं होती ये लोग बीमार रहते हैं | भोजन के समय फिर ठीक हो जाते हैं |

मैंने अपनी माँ को देखा था जो बहुत तेज बुखार होने पर भी, बिस्तर से न उठ पाने की हालत में भी, हमारा पकड़ कर उठती थी और पूजा, आरती करती थीं | स्थिति कितनी ही खराब क्यों न रही हो, उन्होंने पूजा पाठ नहीं छोड़ा, और यहाँ पूजा पाठ एक नौकरी की तरह की जाती है | क्योंकि करना और कुछ है नहीं सो किर्तनिया बनकर खुद को सन्यासी, साधू संत समझ रहे हैं | काम करेंगे तो दिखाने के लिए, नाम जपेंगे तो दिखाने के लिए... कुछ भी भीतर से नहीं है | दिन भर दूसरों की निंदा, चुगली में वक्त गुजारेंगे और फिर आशा करेंगे स्वर्ग और मोक्ष की |

सारांश यह कि भीतर से स्वाभाविक रूप से उत्पन्न प्रेम, सेवा का भाव बिना कहे भी सामने वाले को छू लेती है | उसके दिल में उतर जाता है, जबकि दिखावा केवल मस्तिष्क को मुर्ख बना पाता है | जो अध्यात्मिक स्तर पर उठे नहीं हुए हैं, जो केवल मस्तिष्क के छः प्रतिशत में ही सिमट कर रह गये हैं, जिन्होंने अपने मस्तिष्क को अधिक विकसित नहीं होने दिया, जो किताबों से आगे नहीं बढ़ पाए, वे सभी जो खुद को आधुनिक और प्रेक्टिकल मानते हैं, वे सभी जो खुद को पढ़ा-लिखा समझते हैं, उनके लिए ये ड्रामे काम कर सकते हैं, लेकिन जो मस्तिष्क से परे, दिल से सुनते व समझते हैं, जो ब्रह्माण्ड की एक मात्र भाषा प्रेम को समझते हैं, उनको मुर्ख नहीं बनाया जा सकता | दो विभिन्न प्रजातियाँ एक दूसरे के समीप होने मात्र से सुख का अनुभव कर सकते हैं | कोई मोल-भाव नहीं होता, कोई मौखिक संवाद की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन वे एक दूसरे की भावनाओं को आसानी से समझ व अनुभव कर सकते हैं | ~विशुद्ध चैतन्य

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