27 सितंबर 2015

कुछ तो ऐसा है कहीं.. जहाँ मुझे पहुँचना है लेकिन कहाँ ?



आज से छः सात साल पहले जब मैंने पहली बार फेसबुक अकाउंट बनाया था, तब मैंने उन सभी को जोड़ना शुरू किया जो मुझे विद्वान दिखाई दिए या जिनके पोस्ट बहुत ही प्रभावी लगते थे | फिर मैंने अपने बहुत से पुराने उन साथियों को भी जोड़ा जो फिल्म जगत में अच्छे मुकाम पा चुके थे और कुछ ने तो फिल्म फेयर अवार्डस आदि भी जीत लिए थे..... कारण था मेरा अकेलापन जो शहर में मुझे कई बार बहत अखरने लगता था | सोचा था कि इतनी बड़े संसार में देश विदेश के लोग जुड़ेंगे तो उनमें से कुछ तो ऐसे होंगे जिनसे में खुलकर बात कर पाउँगा | उस समय बहुत सी रशियन लडकियाँ भी जुड़ीं... जर्मन, फ़्रांस... और न जाने कहाँ कहाँ से....

लेकिन उस समय मुझे जो अनुभव मिला उसने मेरे जीवन का वह आखरी डोर भी झटके से तोड़ दिया जिसने मुझे शहर में बाँध रखा था | उस समय मैंने बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव किया और वह यह कि हम सब एक वाईब से एक उद्देश्य के लिए ही साथ होते हैं, और जैसे ही वह उद्देश्य पूरा हो जाता है लोग अपने अपने रास्तों पर निकल पड़ते हैं | जो चले गये उनको आवाज देना बेवकूफी है और हम उनको आवाज इसलिए दे रहे हैं क्योंकि हम उन्हें महत्पूर्ण मानते हैं, जबकि उनकी नजर में हम पिछड़ चुके लोग हैं | वे हमसे बातें भी करते हैं, और जब मुलाकात होती है तब अच्छी तरह मिलते भी हैं, लेकिन मैं देख पाता हूँ कि दूरी बहुत हो चुकी है |

फेसबुक में जितने जुड़े उन्हें भी यदि हम गहरे से समझें तो सभी की अपनी अपनी दुनिया है और सभी के अपने अपने सिद्धांत हैं | हर कोई अपनी अपनी पसंद की चीजें देखना सुनना ही पसंद करता है... मैं खुद भी ऐसा ही हूँ | तो यदि सबको जोड़े रखना है, तब हमें समझौता करना पड़ेगा | समझौते को ही सामाजिकता माना जाता है | लेकिन मैंने अपनी आधी से अधिक जिंदगी समझौता न कर पाने के कारण ही अकेलेपन में गुजार दी... तो अब समझौते का प्रश्न ही नहीं उठता था | इसलिए मैंने पिछली प्रोफाइल ही डिलीट कर दी दो साल पहले | इस प्रोफाइल में अपने पुराने किसी भी जानकार को नहीं जोड़ा और सोचा था कि बिलकुल उन्हीं को जोड़ना है जिनको मुझमें रूचि हो और मेरी तरह ही खुले विचारों के हों | इसलिए नए प्रोफाइल में केवल लिखता गया, फ्रेंड रिक्वेस्ट भी दस पंद्रह से अधिक नहीं भेजीं और वह भी शुरू में ताकि कम से कम दस पन्द्रह फ्रेंड तो हों लिस्ट में |

लेकिन लालच बुरी बला है | मैं लगातार आ रहे फ्रेंड रिक्वेस्ट को अपनी प्रसिद्धि समझ बैठा और हर किसी को जोड़ता चला गया.... जल्दी ही पता चला कि वे तो नेताओं के प्रचार-प्रसार वाले कार्यकर्त्ता थे, और उनको मेरे पोस्ट से कुछ लेना-देना नहीं था | तब फिर झटका लगा कि इस बार फिर धोखा खा गया | और फिर सफाई अभियान शुरू किया | और लिस्ट में दो सौ ही बचे रह गये.... न जाने कैसे और कब गिनती फिर तीन हज़ार में पहुँच गयी... और इस बार भी नेता-भक्तों कि भीड़ ही आई | फिर बाहर..... तो यह खेल चलता रहा इन तीन सालों में |

इस बीच जितने भी पोस्ट लिखे सब स्वयं को केंद्र में रखकर ही लिखे... ताकि लोगों को स्पष्ट रूप से समझा सकूं.... लेकिन आज भी मैं देखता हूँ कि यहाँ लोग दडबों में ही हैं | हिन्दुओं के विरुद्ध कुछ दिख जाये तो मुस्लिम वाह-वाही कर देते हैं और मुस्लिम के विरुद्ध कुछ दिख जाए तो हिन्दू वाह-वाही कर देते हैं | ब्राह्मण के विरुद्ध कुछ दिख जाए तो दलित खुश और दलित के विरुद्ध कुछ दिख जाए तो ब्राह्मण खुश..... लेकिन सभी दावा करते हैं कि हम भेदभाव नहीं मानते, हम तो देश और मानव हित की बात करते हैं.... लेकिन वास्तव में सभी ढोंग कर रहे हैं | सभी व्यक्तिगत स्वार्थों को ही महत्व देते हैं |

सारांश यह कि हर किसी कि अपनी अपनी नियति है और अपनी अपनी सोच है... लोग उससे बाहर न निकलना चाहते हैं और न ही निकल सकते हैं | अभी एक दो को फिर एड दिया तो उनके दो एक कमेन्ट में ही पता चल गया कि वे मेरे सर्कल के लायक नहीं हैं.... वैसे कभी सोचता हूँ कि मेरा सर्कल या मेरी मानसिकता तो इन दड़बों से भी अधिक संकीर्ण हैं | वे कम से कम बलात्कारियों, हत्यारों, घोटालेबाजों, अपराधियों से सम्बन्ध तो नहीं तोड़ते... मैं तो किसी का सुर जरा सा बदला और उसे बाहर कर देता हूँ....

फिर सोचता हूँ.... आधी जिंदगी बीत गयी अकेले... आधी और काटनी है अकेले और फिर जाना भी है अकेले.... तो क्यों करना समझौता मुझे ? फिर समझौते की आवश्यकता उन्हें ही होती है, जिन्हें कुछ पाना हो... मेरे लिए तो अब पाने लायक कोई चीज बची नहीं है.... तो समझौता क्यों करना | हाँ लिखता अवश्य रहूँगा परिणाम जो भी हो !
कभी कभी ऐसा लगता है कि यह आश्रम भी मुझे छोड़ ही देना चाहिए... यह भी वह जगह नहीं है जहाँ मुझे होना चाहिए | यहाँ भी काफी लम्बा समय गुजार लिया निष्क्रियता में और मुझे ऐसा कुछ नहीं दिख रहा आगे कि मुझे यहाँ रुकना चाहिए | यहाँ भी लोगों कि रूचि न आध्यत्म में हैं और न ही आध्यात्मिक उत्थान में | इनकी भी रूचि केवल जमीन-जायदाद तक ही सीमित है |

न जाने क्यों मुझे यह सब आकर्षित नहीं करते.... कुछ तो ऐसा है कहीं.. जहाँ मुझे पहुँचना है लेकिन कहाँ ?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

No abusive language please