08 अक्टूबर 2015

ईमानदारी से कहना शुरू कर दीजिये, "हमने भी सुना है ऐसा अपने पूर्वजों से लेकिन अपनाना तो दूर, समझ में ही नहीं आया


किसीने कहा. "अब सिखधर्म में भी पाखंड समा गया है और मेरा मन उचट गया है इससे | समझमे नहीं आ रहा कि कहाँ जाऊं और कौन सा धर्म अपनाऊं | मैंने अपने केश भी कटवा लिए हैं और अब हर कोई मेरे पीछे पड़ा हुआ है कि कम से कम पगड़ी लगा कर रखा कर...."

अब ये सारे पंथ जो कि अब दडबा बन चुके हैं, वास्तव में युवाओं को बेचैन कर रहीं हैं | होगी ही, क्योंकि आप किसी को को कहो कि यह सड़क है जो स्वर्ग की ओर जाती है, लेकिन जब आप चलना चाहते हो तो कहते हैं चलना नियम के विरुद्ध है, बैठो और भजन कीर्तन करो या नमाज पढ़ो या शबद सुनो..... लेकिन आगे मत बढ़ना | तब किसी को भी बेचैनी होने लगेगी | जरा सोचिये कि कोई ट्रेन आप बुक करें कहीं जाने के लिए, और वह सदियों तक उसी प्लेटफार्म पर खड़ी रहे.. तो क्या आपको बेचैनी नहीं होगी ?

आज भी ये पंथ, सम्प्रदाय जिन्हें धर्म कहकर लोगों को मुर्ख बनाया जाता रहा सदियों से, वहीँ के वहीँ खड़े हैं....यह तो ठीक है कि ये वहीँ पड़े हैं क्योंकि सड़क तो जहाँ है वहीँ रहता है, बस मुसाफिर को आगे बढ़ना होता है | लेकिन जब मैं देखता हूँ धर्मों के ठेकेदारों द्वारा गुण्डागर्दी करते हुए, नफरत और दंगा फैलाते हुए, निहत्थों और निर्दोषों की हत्याएं करते हुए.... तो लगता है कि युवाओं की बेचैनी जायज ही है | वे शायद अब समझ गये हैं कि ये सब ईश्वर या सत्य तक पहुँचने के मार्ग नहीं, बल्कि दड़बे हैं जिसमे एक बार फंस गये तो फिर आजन्म नहीं निकल पाओगे | ईश्वर और सत्य तो बहुत दूर की बात है, खुद हो कि भूल जाओगे |

अब यह कहकर मूर्ख बनाने का कोई लाभ नहीं कि हमारी किताबें तो प्रेम का पाठ पढ़ाती है, अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना सिखाती है, गरीबों असहायों की मदद करना सिखाती है......| बल्कि ईमानदारी से कहना शुरू कर दीजिये कि "हमने भी सुना है ऐसा कि प्रेम ही ईश्वर है, सेवा ही इबादत है, परोपकार ही धर्म है आदि इत्यादि  अपने पूर्वजों से, लेकिन अपनाना तो दूर, समझ में ही नहीं आया कभी | सदियों में कोई एक आध ही है जो इस बात को समझ पाता है और हम उसे अवतार या पैगम्बर घोषित कर देते हैं" |

जब यह बात आप लोग ईमानदारी से कहना शुरू कर देंगे तो युवावर्ग अवश्य समझने का प्रयास करेंगे कि आखिर हमारे दडबों वाली किताब में ऐसा है क्या जो सदियों में कभी कभी ही कोई समझ और अपना पाता है, जबकि रट्टा मारते तो रोज देखता हूँ सबको | ~विशुद्ध चैतन्य ‪#‎vishudddhablog‬

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