28 अक्टूबर 2015

मेरा मानना है कि मेरा दोहा उतना ही मौलिक है

पिछले कुछ दिनों से यानि विजयदशमी वाले दिन से ही मुझमें अहंकार कई गुना अधिक बढ़ गया | खुद को अतिविद्वान समझने लगा और अचानक एक श्लोक मेरे भीतर से निकला;

"भला जो देखन मैं चला, भला न मिलिया कोय |
जो दिल देखा आपना, मुझसा भला न कोय ||

जैसे ही यह श्लोक (दोहा) निकला मैंने तुरंत पोस्ट कर दिया और आप लोगों ने पढ़ा भी होगा | अब आप कह सकते हैं कि यह तो पैरोडी है कबीर के दोहे का जिसमें कहा गया था;

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय |
जो दिल देखा आपना, मुझसा बुरा न कोय ||

लेकिन मेरा मानना है कि मेरा दोहा उतना ही मौलिक है, जितना सभी दड़बों के धर्म ग्रन्थ मौलिक हैं और दावा करते हैं कि उनके धर्मग्रंथों को ईश्वर ने स्वयं लिखवाया है | कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि सभी में एक ही बात लिखी है, बस अपने अपने अंदाज में | सभी सनातन धर्म की ही शिक्षा देते हैं और सभी प्रकृति को महत्व देने की ही बात करते हैं | सभी आपस में मिल जुलकर एक दूसरे के सहयोगी हो जाने के लिए कहते हैं...... खैर जाने दीजिये... अब आप लोग कहने लगेंगे कि दिखाओ कहाँ लिखा हमारे धर्म ग्रन्थ में कि मानवता ही श्रेष्ठ धर्म, सर्वधर्म समभाव ही मानव धर्म है...... | और मेरे लिए मुश्किल हो जाएगा यह प्रमाणित करना कि सभी धर्म ग्रन्थ मानवता का पाठ पढ़ाते हैं, सभी सनातन धर्म पर ही आधारित है | क्योंकि मैं तो अनपढ़ हूँ, और आप लोग पढ़े-लिखे | वापस आइये मेरे दोहे पर....

तो मेरा दोहा मौलिक इसलिए है क्योंकि यह आपके धार्मिक सिद्धांतों के विरुद्ध हो जाता है | आपका धर्म कहता है कि अपने को दीन-हीन मानो और दूसरों को महान मानो, जबकि मेरा दोहा कहता है कि खुद को महत्व दो | पहले के दोहे में जो कहा गया, वह था खुद में बुराई खोजना, लेकिन हुआ यह कि लोगों ने मान लिया कि वे खुद ही इतने बुरे हैं कि किसी बुरे का विरोध नहीं कर सकते | जैसे आज कांग्रेस की स्थिति है | अब उसकी आवाज ही नहीं निकल सकती क्योंकि खुद ही इतने कुकर्म कर लिए, कि मुँह खोलते ही सीबीआई उनपर झपट पड़ेगी | तो जब तक वे लोग शांत है, सीबीआई भी शांति से बैठी रहेगी |

इसलिए अब मैं चाहता हूँ कि सभी अपने आप को बुरा कहना बंद करें | क्योंकि मनोविज्ञान का नियम है कि हम जैसा अपने विषय में धारणा बनांते हैं, वैसा ही हम हो जाते हैं | यदि बच्चे को बचपन में ही प्रोत्साहित करने वाला वातावरण मिले, तो वह किसी का गुलाम नहीं बनेगा, बल्कि सहयोगी बनेगा | उसे पता होगा कि कहाँ उसे विरोध करना है और कहाँ समर्थन, वह अंधभक्त नहीं बनेगा | वह किसी का सम्मान करेगा, श्रद्धापूर्वक शीश भी झुकाएगा और प्रणाम भी करेगा, लेकिन वह दिल से होगा, दिखावटी या चापलूसी नहीं कर पायेगा |

तो हम जब स्वयं को बुरा मानने के स्थान पर भला मानेंगे, तो हमारे व्यवहार में भी अंतर आना शुरू हो जाएगा | हम अत्याचारियों के अत्याचार सहने के स्थान पर आत्मरक्षा की शिक्षा लेंगे, हम दूसरों की नौकरियों पर निर्भर होने के स्थान पर आत्मनिर्भर होना पसंद करेंगे | आईएस आईएएस या आईपीएस.... की नौकरी करने वाला इस बात पर गर्व नहीं करेगा कि वह एक उन्नत नस्ल का गुलाम हो गया, बल्कि वह इस बात पर गर्व करेगा कि देश की जनता ने उसे एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी और उसका कर्तव्य है कि वह जनता के लिए सहयोगी हो, न कि भ्रष्टाचारियों, अपराधियों के लिए | क्योंकि अब वह स्वयं को बुरा नहीं कहता, बल्कि अब उसने मनोवैज्ञानिक रूप से स्वीकार लिया है कि वह भला व्यक्ति है और भले लोगों की भलाई करना ही उसका धर्म है |

तो अब बताइये कि मेरा अहंकारी दोहा कैसा लगा ? ~विशुद्ध चैतन्य

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