कल रात मन किया कि कोई बहुत ही पुरानी फिल्म देखी जाए तो १९७४ में बनी फिल्म 'रोटी' लगा ली | हालाँकि बचपन में कई बार दूरदर्शन पर देख चुका हूँ यह फिल्म लेकिन कल यह फिल्म मुझे बिलकुल अलग ही लगी | फिल्म देखकर कई प्रश्न उभर कर सामने आ गये |
एक बच्चा रोटी के लिए काम करना चाहता है, लेकिन समाज उसे काम नहीं करने देता और न ही उसकी कोई सहायता ही करता है | वह चोरी करता है रोटी की तो समाज उसे एक रोटी भी नहीं चुराने देता | सहायता करना तो दूर उसे बुरी तरह मार-पीट कर भगा देता है | ऐसे में असामाजिक तत्व उसकी सहायता करता है और उसे काम भी देता है | वह एक महान चोर बनता है और स्मगलिंग की दुनिया में अपना नाम कमाता है |
अब जरा पूरी घटनाक्रम को समझें तो सभ्यों के समाज से बेहतर तो असामाजिक तत्वों का समाज है | कम से कम वे किसी असहाय की सहायता तो करते हैं वह भी बिना जात-पात और धर्म पूछे ? कम से कम सभ्य लोगों से वे असभ्य व अपराधी लोगों में इंसानियत तो है कि वे तुरंत सहयोग के लिए तैयार हो जाते हैं ?
अब आप कहेंगे कि वे लोग तो ऐसे ही बेबसों को खोजते हैं, और सहायता करने के नाम पर अपने धंधे में घसीट लेते हैं और फिर वह बेबस जीवन भर उससे बाहर नहीं निकल पाता |
लेकिन किसी को उस धंधे में धकेलने वाला है कौन ? यही सभ्यों का समाज ही तो है, जो दिखावा करता है, ढोंग करता है धार्मिकता का, सभ्य होने का ! यदि जब वह बच्चा एक स्मगलर के लिए इतना कीमती हो सकता है कि वह उसे अंतिम समय तक नहीं छोड़ना चाहता तो, वही बच्चा समाज के लिए भी तो कीमती हो सकता था ?
और फिर हमारा कानून, अपना फर्ज पूरा करता है उसे गोली मारकर, जो अब सही मार्ग पर आ चुका है | जो खुद ही अपराध की दुनिया छोड़ चुका है | तो समाज वास्तव में किसी को सुधारना नहीं चाहता और न ही चाहता है कि कोई सुधरे... क्योंकि किसी इंसान के सुधर जाने से अधिक महत्वपूर्ण है सजा देना |
कभी समय मिले तो यह अवश्य चिंतन कीजियेगा कि सभ्यों का समाज वास्तव में सभ्य है या नहीं | ~विशुद्ध चैतन्य
एक बच्चा रोटी के लिए काम करना चाहता है, लेकिन समाज उसे काम नहीं करने देता और न ही उसकी कोई सहायता ही करता है | वह चोरी करता है रोटी की तो समाज उसे एक रोटी भी नहीं चुराने देता | सहायता करना तो दूर उसे बुरी तरह मार-पीट कर भगा देता है | ऐसे में असामाजिक तत्व उसकी सहायता करता है और उसे काम भी देता है | वह एक महान चोर बनता है और स्मगलिंग की दुनिया में अपना नाम कमाता है |
अब जरा पूरी घटनाक्रम को समझें तो सभ्यों के समाज से बेहतर तो असामाजिक तत्वों का समाज है | कम से कम वे किसी असहाय की सहायता तो करते हैं वह भी बिना जात-पात और धर्म पूछे ? कम से कम सभ्य लोगों से वे असभ्य व अपराधी लोगों में इंसानियत तो है कि वे तुरंत सहयोग के लिए तैयार हो जाते हैं ?

लेकिन किसी को उस धंधे में धकेलने वाला है कौन ? यही सभ्यों का समाज ही तो है, जो दिखावा करता है, ढोंग करता है धार्मिकता का, सभ्य होने का ! यदि जब वह बच्चा एक स्मगलर के लिए इतना कीमती हो सकता है कि वह उसे अंतिम समय तक नहीं छोड़ना चाहता तो, वही बच्चा समाज के लिए भी तो कीमती हो सकता था ?
और फिर हमारा कानून, अपना फर्ज पूरा करता है उसे गोली मारकर, जो अब सही मार्ग पर आ चुका है | जो खुद ही अपराध की दुनिया छोड़ चुका है | तो समाज वास्तव में किसी को सुधारना नहीं चाहता और न ही चाहता है कि कोई सुधरे... क्योंकि किसी इंसान के सुधर जाने से अधिक महत्वपूर्ण है सजा देना |
कभी समय मिले तो यह अवश्य चिंतन कीजियेगा कि सभ्यों का समाज वास्तव में सभ्य है या नहीं | ~विशुद्ध चैतन्य
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