02 दिसंबर 2015

इस जगत में दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं इसलिये आदर्श से पाखंड पैदा होता है

ओशो ने एक घटना का जिक्र किया था जो इस प्रकार है;

एक सज्जन मेरे पास आये। हिंदू-संन्यासी। बंबई की बात। ध्यान समझने आये। मैंने कहा कि ध्यान का शिविर ही चल रहा है, कल सुबह तुम शिविर में आ जाओ। ठीक से वहां ध्यान करो दो-चार दिन, फिर पूछ लेना।


तो उन्होंने कहा: वह तो जरा कठिन है, मैं आ न सकूंगा। मैंने कहा: क्या कारण है? उन्होंने कहा: कारण यह है कि मैं पैसे अपने पास नहीं रखता। पैसे का मैंने त्याग कर दिया है। मैं छूता ही नहीं हाथ से।

तो मैंने कहा: मेरी समझ में नहीं आया, पैसा छूने से सुबह ध्यान करने आने का क्या संबंध?

उन्होंने कहा: आपके खयाल में नहीं आ रही है बात। घाटकोपर रुका हूं। उधर से आते में टैक्सी करनी पड़ेगी।
तो मैंने कहा: यहां तक तुम कैसे आये? तो उन्होंने कहा: ये जो मित्र मेरे साथ हैं, ये कल नहीं आ सकते, इनको कल काम है। ये पैसा रखते हैं। ये पैसा चुकाते हैं, लेते हैं, देते हैं। मैं पैसा छूता नहीं।

मैंने पूछा कि यह पैसा इनके पास कहां से आता है? तो उन्होंने कहा: पैसा तो जो लोग मुझे चढ़ाते हैं--वह ये रखते हैं।

पैसा इनको चढ़ता है, एक सज्जन रखते हैं! वे सज्जन खर्चा करते हैं। अब कल चूंकि वे नहीं आ सकते, इनको अस्पताल जाना है, इसलिये कल बड़ी मुश्किल हो गई, ध्यान करने नहीं आ सकते! क्या पाखंड चला रहे हो! एक आदमी से जो काम हो जाता, उसमें दो को लगा रहे हो! पैसे तुमको चढ़ाये जाते हैं, उनको तो कोई चढ़ाता नहीं। ये सिर्फ दलाल हैं। ये सिर्फ तुम्हारे पैसे रखते हैं!

मैंने उनसे पूछा कि ये धोखा-धाखा नहीं करते कि कितने के कितने बनाये? उन्होंने कहा कि नहीं, हिसाब तो मैं रखता हूं। हिसाब मैं रख सकता हूं। अंधा नहीं हूं।
हिसाब तुम रखते हो, पैसा तुम रखते नहीं हो, किस खेल में पड़े हो! और ये सोच रहे हैं कि एक बहुत बड़ा काम इन्होंने कर लिया है, किस खेल में पड़े हो। आदर्श बनाओगे? आदर्श बनाओगे कैसे? किसी को देखकर बनाओगे।

बस, किसी को देखकर बनाया कि झंझट शुरू हुई। इस जगत में दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं इसलिये आदर्श से पाखंड पैदा होता है। इस जगत में व्यक्ति-व्यक्ति भिन्न हैं। कृष्ण का आदर्श बनाओगे, बस तुम मुश्किल में पड़ जाओगे; तुम कृष्ण नहीं हो। महावीर का आदर्श बनाओगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे; तुम महावीर नहीं हो। महावीर भी किसी और का आदर्श मानकर नहीं चले थे; चलते तो वे भी पाखंडी हो जाते। वे अपनी सहजता से जीये, इसलिये कोई पाखंड न था। इस बात को खूब समझ लो गहराई से।

जो भी सहजता से जीता है, जिसका कोई आदर्श नहीं है, जो अपने स्वभाव से जीता है--किसी धारणा के अनुसार नहीं; जो किसी तरह का आचरण नहीं बनाता, अपने अंतस से जीता है--उसके जीवन में पाखंड नहीं होता। उसके जीवन में कोई पाखंड कभी नहीं होता। जो स्वाभाविक है वही करता है, पाखंड का सवाल ही नहीं। मगर जो लोग दूसरे का अनुकरण करेंगे वे सब पाखंडी हो जाते हैं।

इसलिये दुनिया में इतना पाखंड है, क्योंकि सारे लोग अनुकरण कर रहे हैं--कोई महावीर का, कोई बुद्ध का, कोई कृष्ण का। ये सब पाखंडी हो जाने वाले हैं।

इसलिये मैं अपने संन्यासी से कहता हूं कि मैं तुम्हारा आदर्श नहीं हूं। मेरे ढंग से जीने की चेष्टा मत करना। मैं नहीं चाहता कि मैं तुम्हारे ऊपर आरोपित हो जाऊं, नहीं तो मुश्किल होगी; नहीं तो कठिनाई में पड़ोगे, पाखंडी हो जाओगे। मैं जैसा जी रहा हूं वह मेरे लिये स्वाभाविक है। मैं किसी को आदर्श मानकर नहीं जी रहा हूं। ~ओशो

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