
मुझे नहीं पता कि यह वृत्तांत कितना सही है और कितना गलत...लेकिन इसमें जो पक्ष मुझे देखने मिला कि जिन्होंने भी यह कहानी गढ़ी है वे वास्तव में बुद्ध से परिचित नहीं रहे होंगे | यदि बुद्ध ने उसे मना किया दीक्षा देने का तो कोई और कारण रहा होगा.... खैर जो भी हो.... यह कहानी कहने वाले वही लोग हैं जो भौतिक शरीर से भीतर नहीं झाँक पाते |
स्त्री को जानना है तो भौतिक शरीर से भीतर झाँकना होगा और वह क्षमता बहुत ही कम लोगों में होती है | स्त्री ही नहीं किसी भी व्यक्ति को जानना हो तो उसके बाह्य रूप से नहीं, बल्कि उसकी आत्मा में झाँकना होगा | व्यक्ति बाहर बहुत से मुखौटे लगाकर चलता है और ये सारे मुखौटे समाज ही उसे देता है | व्यक्ति तो इन मुखौटों में ऐसा खो जाता है कि अपनी असली शक्ल ही भूल जाता है | इसलिए व्यक्ति को जानने के लिए भौतिक शरीर से आगे जाना होगा |

धर्म हों, पंथ हों, धार्मिक ग्रन्थ हों या धार्मिक परमपराएं, वे सभी मानवों को अध्यात्मिक उत्थान के लिए ही थे लेकिन मानव आध्यात्मिक उर्प से ऊपर उठा ही नहीं, बल्कि नीचे नीचे उतरता चला गया | अब जो लोग खुद को वैज्ञानिक सोच और नास्तिक मानते हैं, वे तो केवल भौतिक जगत तक ही सिमट कर रह गये | उनके पास तर्क भी ठीक है कि जो चीज देख नहीं सकते, अनुभव नहीं कर सकते, उसे हम कैसे मानें | लेकिन जो लोग खुद को धार्मिक कहते हैं, आध्यात्मिक कहते हैं, कम से कम उनको तो भौतिक जगत से ऊपर उठना चाहिए था.... लेकिन वे भी नहीं उठ पाए | सारा धर्म और आध्यात्म ही स्त्री के भौतिक शरीर पर ही ठहर गया, उससे आगे बढ़ ही नहीं पाया |
गौतम बुद्ध ने आम्रपाली को दीक्षा देकर बहुत बड़ी गलती कर दी कहें वाले, स्वयं स्त्री की आत्मा से अपरिचित रहे | आज कोई स्त्री किसी मठ में किसी संन्यासी से मिलने चली जाए, तो देखने वालों को रात भर नींद नहीं आएगी....क्योंकि संन्यासी भी उनका गुलाम है और स्त्री तो सदा गुलाम रही ही थी | वेश्यालय हो, या नगरवधू, या देवदासी... सभी पुरुषों की वासना पूर्ति के लिए ही बनी, लेकिन ये लोग कभी यह नहीं सोचे कि इन वेश्याओं से अधिक दोष उनका है जो इनको इस पेशे के लिए विवश करते हैं | वे इन वेश्याओं से अधिक पापी हैं जो इनके पास जाते हैं....... लेकिन स्त्री को दोषी सिद्ध कर दिया जाता है |
तो सारा धर्म और सारी सभ्यता स्त्री के शरीर से ऊपर नहीं उठ पाया, बल्कि नीचे से नीचे गिरता चला गया | अष्टावक्र ने ऐसे ही घनघोर धार्मिकों को चमार की संज्ञा दी थी और वे बिलकुल सही थे | यदि समाज और धर्मों के ठेकेदार स्त्री को भी मनुष्य समझते और स्त्री-पुरुष के संबंधों को सहजता से स्वीकार करते तो भारत आज हिन्दू-मुस्लिम, जातिवाद आदि में न उलझकर श्रेष्ठ आविष्कारों में व्यस्त होता | आज भारत दुनिया भर का कर्जदार न होकर आत्मनिर्भर, सुखी व व समृद्ध होता क्योंकि तब हमारा मानसिक व बौद्धिक स्तर स्त्री-पुरुष के संबंधों से ऊपर उठकर आपसी सहयोगिता पर काम कर रहा होता | ~विशुद्ध चैतन्य
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