मैंने जिस पंथ के अंतर्गत संन्यास लिया, वह पंथ मुझे श्रेष्ठ लगा क्योंकि इसमें बंधन नहीं था | अन्य अखाड़ों, या पन्थो की तरह इसमें कुछ भी थोपने का सिद्धांत नहीं था, लेकिन फिर भी मैं अपने पंथ का प्रचार नहीं करता | अरुणाचल मिशन से जुड़े श्रृद्धालुओं की नजर में, मैं आत्ममुग्ध व नाम का भूखा हूँ | यह धारणा सभी हिंदुत्व के ठेकेदारों ने भी बना रखी है...... खैर... जो समझना हो समझते रहें... मैं अपने विषय पर लौटता हूँ |
तो मैंने अपने पंथ का प्रचार प्रसार में कोई योगदान नहीं दिया, फिर भी मुझे हर वह चीज उपलब्ध हुई जो मुझसे पहले किसी भी संन्यासी को प्राप्त नहीं थी और शायद वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे | हर संन्यासी मुझे दुखी व परेशान मिला यहाँ लेकिन मेरे आने के बाद अब सभी खुश हैं.... कारण यही था कि वे ठाकुर दयानंद के सिद्धांत से भटक गये थे और पूजा-पाठ, कर्मकांड को ही जीवन मानकर जी रहे थे | और उसका परिणाम यह हुआ कि भाव मिट गया और केवल जबरदस्ती का थोपा हुआ कर्मकांड मात्र रह गया |
ठाकुर दयानंद देव जी ने कभी भी किसी पर कोई दबाव न बनाया और न ही कभी थोपा कुछ भी | वे तो इतने सहज थे कि कभी किसी को धर्म-परिवर्तन के लिए नहीं कहते | इसलिए मुस्लिम भी उनके अनुयाइयों में से थे और एक दो तो उनके लिए भजन भी लिखा करते थे | ठाकुर जी से जुड़ने का अर्थ यह कभी नहीं होता था कि वे अपना पंथ छोड़ दें.... उनका मानना था कि जहाँ तक साथ चल सकते हैं चले, आगे जब राह बदल जाए तो अपना रास्ता पकड़ लें |
वे शायद भारत में अकेले ही ऐसे संत थे, जिन्होंने संन्यासियों का स्वयं अपने हाथों से विवाह करवाया, वे शायद अकेले ऐसे संत थे, जो स्वयं विवाहित रहे और विवाह को आध्यात्म के मार्ग का सहज माध्यम मानते थे | वे शायद पहले ऐसे संत थे, जो अपने भक्तों के लिए स्वयं मछली बनाया करते थे यदि कभी कोई भक्त मछली भेंट स्वरुप लेकर आ जाये तो | उन्होंने खान-पान में कोई निषेध नहीं किया था क्योंकि वे मानते थे कि मनुष्य को अपनी प्रकृति के साथ ही सहजता प्राप्त होती है | किसी को जबरदस्ती शाकाहारी बनाना, माँसाहारियों की निंदा करना सनातन धर्म विरुद्ध है |
मेरी अपनी नजर में मांसाहारियों की निंदा, वैदिकों और ब्राहमणों को ही शोभा देता है क्योंकि वे सनातन धर्म से अनभिज्ञ हैं और ब्राहमणवाद को ही धर्म मानकर जीते हैं | वास्तव में माँसाहार केवल ब्राहमणों के लिए ही निषेध था, लेकिन उन्होंने अपनी मज़बूरी को छुपाने के लिए मांसाहारियों की निंदा का रास्ता अपनाया और उन्हें नीच व पापी कहना शुरू कर दिया था शायद | खैर... फिर वापस आते हैं....
तो ठाकुर दयानंद देव और उनके मिशन अरुणाचल मिशन के अंतर्गत चलाया जाने वाला अभियान था, 'विश्वशांति' | जो कि १९०९ में उन्होंने सिलहट जो कि अब बांग्लादेश में है, से शुरू किया था | इसी अभियान के तहत उन्होंने सभी राष्ट्राध्यक्षों को पत्र लिखकर एक ऐसी संस्था का गठन करने का सुझाव दिया जो कि बाद में १९४५ में संयुक्त राष्ट्रसंघ के रूप में सबके सामने आया |
लेकिन मैं अपने पंथ का प्रचार नहीं करता, क्योंकि फिर यह भी बाकी पन्थो की तरह एक दड़बा बन जायेगा और फिर वह सब चलेगा जो दूसरे दड़बों में चलता है | मेरा उद्देश्य वही है जो ठाकुर दयानंद देव जी का था, बस मेरा काम करने का तरीका वह नहीं है जो उनके शिष्यों व अनुयाइयों ने चुना था | वे ठाकुर जी के मूल सिद्धांत से ही भटक गये थे, जबकि मैंने केवल मूल सिद्धांत को ही अपनाया | मैं आप से कभी नहीं कहूँगा कि आप अपना धर्म या पंथ बदल लो | एक उदाहरण उन्हीं के एक शिष्य स्वामी विनयानंद जी का है जो कि बाद में इस आश्रम के अध्यक्ष बने थे और मेरे गुरूजी के गुरु रहे |
एक बार उनके पास किसी और पंथ का कोई अनुयाई आया और दीक्षा देने के लिए कहा | तो उन्होंने कहा कि आप तो पहले ही किसी और गुरु के शिष्य हैं, फिर यहाँ दीक्षा क्यों लेना चाहते हैं ? आगंतुक ने कोई कारण बताया... तो उन्होंने उसे यह कहकर विदा कर दिया कि मैं दीक्षा नहीं दे सकता हाँ, कोई सुझाव या सलाह चाहिए तो दे सकता हूँ, लेकिन आपका गुरु वही रहेंगे जो वर्तमान में हैं, आप अपने ही पंथ में रहें, पंथ न बदलें अभी |
लेकिन आज मैं यह देखकर आश्चर्य करता हूँ कि बाकी पन्थो में होड़ लगी हुई है कि किसने कितने का धर्म-परिवर्तन करवाया, चाहे धर्म परिवर्तन करनेवाले को धर्म ही न समझ में आया हो, चाहे पहले ही जो उस पंथ में हैं उन्हीं का भला न कर पा रहे हों... लेकिन चारा फेंकने में सभी माहिर हुए पड़े हैं | कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि जितनों को फाँसा है अभी तक उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थिती कैसी है, उनका भला हुआ या नहीं | ~विशुद्ध चैतन्य

तो मैंने अपने पंथ का प्रचार प्रसार में कोई योगदान नहीं दिया, फिर भी मुझे हर वह चीज उपलब्ध हुई जो मुझसे पहले किसी भी संन्यासी को प्राप्त नहीं थी और शायद वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे | हर संन्यासी मुझे दुखी व परेशान मिला यहाँ लेकिन मेरे आने के बाद अब सभी खुश हैं.... कारण यही था कि वे ठाकुर दयानंद के सिद्धांत से भटक गये थे और पूजा-पाठ, कर्मकांड को ही जीवन मानकर जी रहे थे | और उसका परिणाम यह हुआ कि भाव मिट गया और केवल जबरदस्ती का थोपा हुआ कर्मकांड मात्र रह गया |
ठाकुर दयानंद देव जी ने कभी भी किसी पर कोई दबाव न बनाया और न ही कभी थोपा कुछ भी | वे तो इतने सहज थे कि कभी किसी को धर्म-परिवर्तन के लिए नहीं कहते | इसलिए मुस्लिम भी उनके अनुयाइयों में से थे और एक दो तो उनके लिए भजन भी लिखा करते थे | ठाकुर जी से जुड़ने का अर्थ यह कभी नहीं होता था कि वे अपना पंथ छोड़ दें.... उनका मानना था कि जहाँ तक साथ चल सकते हैं चले, आगे जब राह बदल जाए तो अपना रास्ता पकड़ लें |
वे शायद भारत में अकेले ही ऐसे संत थे, जिन्होंने संन्यासियों का स्वयं अपने हाथों से विवाह करवाया, वे शायद अकेले ऐसे संत थे, जो स्वयं विवाहित रहे और विवाह को आध्यात्म के मार्ग का सहज माध्यम मानते थे | वे शायद पहले ऐसे संत थे, जो अपने भक्तों के लिए स्वयं मछली बनाया करते थे यदि कभी कोई भक्त मछली भेंट स्वरुप लेकर आ जाये तो | उन्होंने खान-पान में कोई निषेध नहीं किया था क्योंकि वे मानते थे कि मनुष्य को अपनी प्रकृति के साथ ही सहजता प्राप्त होती है | किसी को जबरदस्ती शाकाहारी बनाना, माँसाहारियों की निंदा करना सनातन धर्म विरुद्ध है |
मेरी अपनी नजर में मांसाहारियों की निंदा, वैदिकों और ब्राहमणों को ही शोभा देता है क्योंकि वे सनातन धर्म से अनभिज्ञ हैं और ब्राहमणवाद को ही धर्म मानकर जीते हैं | वास्तव में माँसाहार केवल ब्राहमणों के लिए ही निषेध था, लेकिन उन्होंने अपनी मज़बूरी को छुपाने के लिए मांसाहारियों की निंदा का रास्ता अपनाया और उन्हें नीच व पापी कहना शुरू कर दिया था शायद | खैर... फिर वापस आते हैं....
तो ठाकुर दयानंद देव और उनके मिशन अरुणाचल मिशन के अंतर्गत चलाया जाने वाला अभियान था, 'विश्वशांति' | जो कि १९०९ में उन्होंने सिलहट जो कि अब बांग्लादेश में है, से शुरू किया था | इसी अभियान के तहत उन्होंने सभी राष्ट्राध्यक्षों को पत्र लिखकर एक ऐसी संस्था का गठन करने का सुझाव दिया जो कि बाद में १९४५ में संयुक्त राष्ट्रसंघ के रूप में सबके सामने आया |
लेकिन मैं अपने पंथ का प्रचार नहीं करता, क्योंकि फिर यह भी बाकी पन्थो की तरह एक दड़बा बन जायेगा और फिर वह सब चलेगा जो दूसरे दड़बों में चलता है | मेरा उद्देश्य वही है जो ठाकुर दयानंद देव जी का था, बस मेरा काम करने का तरीका वह नहीं है जो उनके शिष्यों व अनुयाइयों ने चुना था | वे ठाकुर जी के मूल सिद्धांत से ही भटक गये थे, जबकि मैंने केवल मूल सिद्धांत को ही अपनाया | मैं आप से कभी नहीं कहूँगा कि आप अपना धर्म या पंथ बदल लो | एक उदाहरण उन्हीं के एक शिष्य स्वामी विनयानंद जी का है जो कि बाद में इस आश्रम के अध्यक्ष बने थे और मेरे गुरूजी के गुरु रहे |
एक बार उनके पास किसी और पंथ का कोई अनुयाई आया और दीक्षा देने के लिए कहा | तो उन्होंने कहा कि आप तो पहले ही किसी और गुरु के शिष्य हैं, फिर यहाँ दीक्षा क्यों लेना चाहते हैं ? आगंतुक ने कोई कारण बताया... तो उन्होंने उसे यह कहकर विदा कर दिया कि मैं दीक्षा नहीं दे सकता हाँ, कोई सुझाव या सलाह चाहिए तो दे सकता हूँ, लेकिन आपका गुरु वही रहेंगे जो वर्तमान में हैं, आप अपने ही पंथ में रहें, पंथ न बदलें अभी |
लेकिन आज मैं यह देखकर आश्चर्य करता हूँ कि बाकी पन्थो में होड़ लगी हुई है कि किसने कितने का धर्म-परिवर्तन करवाया, चाहे धर्म परिवर्तन करनेवाले को धर्म ही न समझ में आया हो, चाहे पहले ही जो उस पंथ में हैं उन्हीं का भला न कर पा रहे हों... लेकिन चारा फेंकने में सभी माहिर हुए पड़े हैं | कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि जितनों को फाँसा है अभी तक उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थिती कैसी है, उनका भला हुआ या नहीं | ~विशुद्ध चैतन्य

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