
जितने भी किताबी धर्म हैं, जितने भी पंथ हैं, सम्प्रदाय हैं विश्व में, वे सभी इस आधार पर बने कि धर्म व ईश्वर को समझ पायें, और एक अच्छे, सभ्य, सहयोगी समाज की स्थापना करते हुए आगे बढ़ें |
किसी ने बुद्ध का अपना आदर्श माना तो किसी ने महावीर को तो किसी ने निराकार को तो किसी ने साकार को.... लेकिन मुख्य उद्देश्य आगे बढ़ना ही था... पंथ यानि मार्ग जो आपको आपकी मंजिल तक ले जाता है | और दुर्भाग्य से पंथों को धर्म का नाम दे दिया गया और उसके साथ ही पंथ ठहर गये | बिलकुल वैसे ही जैसे महात्मागांधी के अनुयाई महात्मागाँधी मार्ग पर बैठ जाएँ और कहें कि हम तो महात्मागाँधी के अनुयाई हैं इसलिए यही बैठे रहेंगे आजन्म | हम महात्मा गांधी की तरह ही ड्रेस पहनेंगे उनकी तरह ही चश्मा, घड़ी और छड़ी रखेंगे....
तो जितने भी किताबी धर्म हैं वे सब ठहरे हुए हैं, और अब एक ऐसे दड़बों में परिवर्तित हो गये हैं जिसमें आप जा तो सकते हैं, लेकिन निकल नहीं सकते | अब दड़बों के मालिक ही आपके असली मालिक हैं, ईश्वर नहीं | अब दड़बों के मालिक ही आपको अपने इशारे पर लड़ाएँगे, वोट डलवायेंगे, दंगे करवाएंगे... और आप चाहो या न चाहो आपको उनके इशारों पर यह सब करना ही होगा, नहीं तो दड़बे के बाकी लोग आपको चैन से जीने नहीं देंगे | हर दड़बे में गरीबी है, बेरोजगारी है लेकिन उसका दोष दड़बा-परिवर्तन करवाने वाले सरकार को देते हैं | यानि भेड़-बकरी अपनी और चारा की जिम्मेदारी सरकार की | किसी भी दड़बे का ठेकेदार अपनी, बत्तखों, मुर्गियों, भेड़-बकरियों को न तो नौकरी दिलवाता है, न ही घर या भोजन दिलवाता है, न ही भूमाफियाओं से उनकी रक्षा करता है, न ही उनकी आम जरूरते पूरी करता है.....

नहीं देखा होगा... क्योंकि जो धर्म ठहर गये हैं, उसमें बिमारी, भुखमरी, और त्रासदी के सिवाय और कुछ नहीं मिलेगा | कभी किसी कसाई की दूकान में जाएँ और देखें मुर्गियों की स्थिति.... समझ में आ जायेगा दड़बे और धर्म का अंतर | ~विशुद्ध चैतन्य
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क्या अफ्रीका नास्तिकों का देश है ? |
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