संविधान व धर्म-ग्रन्थ दोनों ही आज दयनीय स्थिति में है और दोनों ही अपने उद्देश्यों में विफल होते जान पड़ रहे हैं | मैं इस निष्कर्ष में इसलिए पहुँचा क्योंकि संविधान और धर्मग्रंथों की स्थिति लगभग समान हो रखी है वर्तमानकाल में | जिस प्रकार संविधान राष्ट्र के लिए सर्वोच्च सम्मानित ग्रन्थ है, ठीक वैसे ही सभी सम्प्रदायों, पन्थो के अपने अपने धर्मग्रंथ हैं और वे भी उतने ही सम्मानित हैं उनके लिए | कुछ लोगों के लिए संविधान से भी अधिक महत्व है धार्मिकग्रंथो का |
लेकिन जब हम व्यवहारिकजगत में आते हैं और जब यह जानने का प्रयत्न करते है कि व्यवहार में कितने लोग लाते हैं, तो अधिकांश ऐसे मिलेंगे जिन्होंने कभी न तो संविधान को पढ़ा और न ही कभी धर्मग्रंथो को | लगभग सभी वकीलों, जजों, पंडितों, मौलवियों, पादरियों पर ही निर्भर हैं | फिर यह आवश्यक नहीं कि जज या वकील, धर्मग्रंथों के आदेशों या दिशा निर्देशों का अनुसरण करते हों | तो यह भी आवश्यक नहीं कि ये लोग संविधान का सदुपयोग ही करते हों और न्यायोचित कार्यो में ही संलग्न हों | आये दिन हम देखते हैं कि संविधान जो कि राष्ट्र की जनता को हित में रखकर तैयार किया था, उससे लाभ केवल पूंजीपतियों, नेताओं, राजनैतिक पार्टियों को ही होता है, आम जन शोषित और पीड़ित दर-दर भटकता रहता है | कई बार तो न्याय की आस में जीवन बीत जाती है किसी की और वह देख नहीं पाता कि न्याय मिला या नहीं मिला | संविधान को ही आधार बनाकर जातिगत राजनीती इतनी बलवती हो चुकी है कि अब यह खुद ही एक नासूर बन गया है राष्ट्र के लिए | अब दलितों के हिमायती भी सपने देखने लगे हैं कि एक दिन पूरे देश में उनका कब्ज़ा होगा और फिर सबसे चुन-चुनकर बदला लिया जाएगा | तो संविधान वास्तव में गलत लोगों के हाथों में चला गया या गलत लोगों को हमने संविधान सौंप दिया |
ठीक इसी प्रकार धार्मिकग्रंथों की स्थिति है | दया, धर्म, परोपकार, सेवा, सहयोग... जैसी बातें अब केवल किताबी रह गयीं और हिंसा, दंगा, तोड़-फोड़, आगजनी... आज धार्मिक कर्मों में गिना जाने लगा | अब धर्म के नाम पर आप आगजनी करो, तोड़-फोड़ करो, हत्याएं करो, बलात्कार करो... सब जायज है और ईश्वर ख़ामोशी से सब देख रहा है | वह बेचारा उतना है असहाय है आज जितना कि संविधान के निर्माता हैं | शायद दोनों ही आसमान से अपनी लाचारी और बेबसी पर आँसू बहा रहे होंगे |
२५-२६ नवम्बर, १९४९ को भाषण करते हुए संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने कहा था;

यह तो था अम्बेडकर साहब की वह आशंका जो आज फलित होती दिख रही है | आज कुछ वैसा ही हो रहा है जैसे माँ-बाप ने दिन रात एक करके संपत्ति बनाई, बच्चों को पालापोसा और जब माँ-बाप मर गये तो बच्चों में सम्पत्ति के बंटवारे के लिए, या मालिकाना हक पाने के लिए मार-काट छिड़ गयी | लोग शायद महाभारत का युद्ध भूल गये |
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने अपने समापन भाषण में कहा;

तो डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी ने जो शंका व्यक्त की वह भी आज सही सिद्ध हो रही है | हर कोई अपने अपने दड़बे में सिमटा हुआ बस उतनी ही दुनिया देख पा रहा है जो उस दड़बे से उसे दिखाई देती है | उससे आगे न तो कोई देखना चाहता है और न ही समझना चाहता है |
इस प्रकार हम देखें तो धार्मिक ग्रंथों और संविधान की आज जो दुर्दशा हो रखी है उसके जिम्मेदार हम ही हैं | हम ही हैं दोषी जो व्यक्तिगत स्वार्थो के लिए नफरत के ज़हर बोने में लगे हुए हैं | हम ही हैं जो देश को फिर से टुकड़ों में बिखेरने के लिए तत्पर हुए पड़े हैं | क्योंकि हमारी जाति, हमारा पंथ, सम्प्रदाय, देश से ऊपर है | देश टुकड़ों में बंटता है तो बंट जाए, हमारी बला से | हमें तो अपनी जाति, अपनी सम्प्रदाय से प्रेम है | देश रहे न रहे, हमारी जाति, हमारा पंथ बना रहना चाहिए | शायद यही शिक्षा मिलती है धर्मों के ठेकेदारों और नेताओं के धार्मिक/पब्लिक स्कूलों में | शायद यही शिक्षा मिलती है धार्मिक ग्रंथो को पढ़ाने व समझाने वाले विद्वानों से | ~विशुद्ध चैतन्य
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