14 नवंबर 2016

हमेशा हाथ फैलाये रहने वालों से लोग दूरी बना लेते हैं


"मैं भौतिक और अध्यात्मिक जगत के बीच सेतु बनाना चाहता हूँ |" -ठाकुर दयानन्द देव (१८८१-१९३७)

यही एक लाइन थी, जिसने मुझे इनके आश्रम में खींच लिया क्योंकि यही है सच्ची शिक्षा और जो ऐसा कह सकता है, वही सही मायने में सही गुरु है | बाकी जितने भी गुरु, संत या बाबा मुझे मिले, सभी ने यही कहा कि जगत मिथ्या है, माया है बस ईश्वर सत्य है, मृत्यु सत्य है |


मैं शुरू से ही मृत्यु को सत्य नहीं मानता था क्योंकि जब मैंने जाना कि आत्मा अमर है, तो फिर मृत्यु सत्य कैसे हो सकती है ? जब मैंने जाना नशे में धुत्त, बेहोश व्यक्ति या सोते रहने वाले व्यक्ति का कोई सम्मान नहीं है तो फिर जीवन असत्य कैसे हो सकता है ? यानि जो होश में है वही सत्य है और जो गति में हैं वही जीवन है | जो ठहर जाये, वह मृत हो जाता है और ठहरा हुआ जल भी बीमारियों का कारण बनता है |

इसीलिए ठाकुर दयानंद जी मुझे बिलकुल सही लगे क्योंकि उन्होंने जो कुछ कहा वही मेरे जीवन का भी आधार है | मैं भी यही मानता था कि भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत जीवन के दो पहलू हैं और एक दूसरे के बिना अधूरे | ठाकुर ने यह भी कहा था, "स्त्री नरक का नहीं, स्वर्ग और मोक्ष का द्वार है' और यह बात भी सही है क्योंकि अपने ही शरीर के एक हिस्से को हम स्वर्ग और दूसरे हिस्से को नरक नहीं ले जा सकते, स्त्री और पुरुष एक ही शरीर के दो हिस्से मात्र हैं |

तो ये मूढ़ रट्टामार विद्वानों के कारण सारा समाज गरीबी, भुखमरी को महान समझने लगा, लेकिन गुलामी पूंजीपतियों की करते रहे | यह सोचते रहे कि ये लोग अमीर हुए हैं बेईमानी से इसलिए ईश्वर इनको नरक में भेजेगा... अरे मूर्खो, इनको मरने के बाद इनको क्या मिलेगा क्या नहीं, वह किसने देखा है ? आपको तो अभी खुद ही नहीं पता कि आप स्वर्ग भोग कर इस दुनिया में आये हो या नरक भोग कर, और दूसरों को स्वर्ग नरक भेज रहे हो | पूंजीपतियों ने पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक के चक्कर में पड़ने से बेहतर समझा अपने लिए धरती पर ही स्वर्ग बना लेना | जो कुछ मरने के बाद स्वर्ग या जन्नत में मिलना है वह सब इसी जगत में इसी जन्म में जीते जी पा लेना | तो वे अपने अभियान में सफल रहे | जन्नत में केवल ७२ हूरें मिलनी थीं, स्वर्ग अप्सराएं मिलनी थीं... वह सब यही मिल रहीं हैं उनको, तो मरने के बाद उनको नरक भी मिले तो क्या दुःख है ? वे ईश्वर से कह तो सकते हैं कि तुम तो ७२ ही हूर या अप्सराएं देने वाले थे, हमने तो सैंकड़ों के साथ ऐश कर ली...

सारांश यह कि भौतिक जगत में भौतिक सुखों का आनंद लो और अध्यात्मिक जगत में आध्यात्मिक | हम इस दुनिया में आनंद लेने के लिए ही आये हैं और आनंद ही सत्य है | हमारे सारे प्रयोजन, सारे कर्मकांड, सारे भागदौड़.. सभी आनंदप्राप्ति के लिए ही होते हैं | हम ईश्वर या स्वर्ग की कमाना भी आनंद के लिए ही करते हैं, न कि स्वर्ग में जाकर मजदूरी करने के सपने देखते हैं |

तो जो लोग स्वयं को ऊपर नहीं उठाना चाहते, जो लोग गरीबी, भुखमरी को अभिशाप मानकर स्वीकार चुके हैं... उनके लिए कोई भी ठहरा नहीं रहेगा | हमेशा हाथ फैलाये रहने वालों से लोग दूरी बना लेते हैं | इसलिए उपर उठिए, आत्मनिर्भर बनिए... सरकार पूंजीपतियों की है, वह गरीबों को बैठे बिठाये अमीर बनाने नहीं आयी है | उसे बुलेट ट्रेन चलानी है, स्मार्ट सिटी बनानी है, कंक्रीट के नये नए महल खड़े करने हैं....कीड़े-मकोड़ों की तरह जीने वाले गरीबों किसानो के लिए अपना कीमती समय बर्बाद नहीं करेंगे | उनका समय बहुत कीमती है और समय बचाने के लिए लाख-दस लाख गरीब मारे भी जाएँ तो कोई नुकसान नहीं होने वाला उनका | भारत एक उपजाऊ भूमि है और पैदावार बहुत ही अच्छी है | दस लाख लोगों की पूरी तो दस महीनों में ही हो जाएगी | उपर उठिए.. आपको स्वयं उठना होगा, आत्मनिर्भर बनिए वह भी आपको स्वयम ही बनना होगा | ~विशुद्ध चैतन्य