
कई हज़ार साल पुरानी बात है, मैं साउथ एक्स के स्टैंड पर ऑटो की प्रतीक्षा में खड़ा था | रात बहुत हो गई थी, इसलिए ऑटो वाले भी मनमर्जी का किराया मांग रहे है थे | कोई पचास मांग रहा था तो कोई सौ, जबकि वहाँ से शाहपुर जट का किराया पंद्रह से बीस रूपये ही होता था |
अंत में मैंने निर्णय लिया कि मैं पैदल ही चला जाऊँगा क्योंकि रात भर खड़े रहने से अच्छा है कि थोड़ा चल ही लूं, तभी एक ऑटो वाला मेरे पास आया और बोला, "चलिए साहब मैं छोड़ देता हूँ |"
मैंने पूछा, "कितना लोगे ?"
"चालीस रूपये |" वह बोला
मैंने कहा, "चालीस में ही जाना होता तो दो घंटे क्यों खड़ा रहता ?"
"अच्छा ठीक है जो आपको ठीक लगे दे देना | आपको छोड़कर मुझे भी घर जाना है... " वह बोला (और तभी मुझे यह भी पता चल गया था कि उसने बहुत अधिक पी रखी है)
"बीस दूंगा |" मैंने तटस्थ स्वर में कहा |
"ठीक है |"
मैं ऑटो में बैठ गया लेकिन मन डरा हुआ था कि यह दस मिनट की यात्रा कहीं ऊपर की यात्रा न सिद्ध हो | अभी हम आयुर्विज्ञान नगर के सामने ही पहुंचे थे कि देखा ऑटो रिवर्स होने लगा | मैंने पूछा, "यह क्या हो रहा ? ऑटो पीछे क्यों जा रहा है ?
"अरे कुछ नहीं सा'ब आप आराम से बैठो, मेरी चप्पल गिर गई है उसे ही लेना ही |"
मैंने कहा कि अरे रुको, मैं लेकर आ जाता हूँ | यह कह कर मैं नीचे उतरा और उसका चप्पल उसे लाकर दिया | तब तक उसकी स्थिति और बिगड़ने लगी वह ठीक से बैठ भी नहीं पा रहा था ऑटो पर |
मैंने कहा, "कि भाई अब रहने दे, मैं यहाँ से पैदल ही चला जाऊँगा |"
वह बोला "अरे ऐसा कैसे हो सकता है ??? आप मेरे लिए भगवान् समान है और एक ऑटो वाले का धर्म है कि वह सवारी को सुरक्षित मंजिल तक पहुँचाये..."
"भाई अब आप मुझे कौन सी मंजिल पहुँचाओगे वही समझ नहीं आ रहा |"
"अरे आप मुझ पर शक रहें हैं ??? मुझे तीस साल हो गये दिल्ली में ऑटो चलाते हुए और आज तक एक भी एक्सीडेंट नहीं हुआ है... आइये बैठिये | दो मिनट का रास्ता और रह गया है |"
मैंने ईश्वर का नाम लिया और बैठ गया | जैसे तैसे शाहपुर जट पहुँचा उसे पैसे देने लगा तो वह अपने जेब से पचास का नोट निकाल कर मुझे दिया |
मैंने पूछा, "यह क्या है ?"
वह बोला, "मैंने अपना धर्म निभाया, अब आप अपना धर्म निभाओ और मुझे घर छोड़कर आओ | मुझे बहुत चढ़ गई है, इसलिए यह आपका धर्म है कि मुझे अपने घर तक छोड़ कर आओ | यहाँ से सीमापुरी के पचास रूपये बनते हैं इसलिए मैं आप को एडवांस में ही दे रहा हूँ...."
मैंने अपना सर पकड़ लिया और उसे कहा, "मैं आपको आपके घर छोड़ दूँगा तो इतनी रात को मैं वापस आऊंगा कैसे ?"
"अरे जब आप मेरी सहायता करेंगे तो मेरा भी तो फर्ज हो जाता है कि मैं आपको आपके घर तक छोड़ूं.... मैं आपको छोडूंगा आपके घर तक वह भी बिलकुल मुफ्त में..."
बहुत मुश्किल से उसे राजी किया कि अभी यहीं ऑटो में सो जाओ कल सुबह चले जाना | थोड़ी देर वह हाँ हाँ करता रहा फिर अचानक बोला नहीं मुझे जाना है... बच्चे भूखे होंगे और ऑटो भगा दिया | ऑटो जाकर सामने कूड़े दान में घुस गई...तब तक चौकीदार आ गया और मुझे बोला कि आप जाइए साहब वह अब सुबह तक नहीं निकलेगा वहां से |
कथा सार यह कि आज हम सभी किसी न किसी की सहायता करना चाहते हैं, लेकिन ऑटो वाले की तरह पहले ही तय कर लेना चाहते हैं | लोग सहायता उस ऑटो वाले की तरह ही करते हैं कि मैं आपको आपके घर छोड़ देता हूँ और आप मुझे मेरे | कई सामाजिक संगठन व संस्थाएँ हैं जो सहायता करने के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि उनकी स्थिति आपसे भी अधिक बुरी है और उन्हें सहायता की आवश्यकता आपसे अधिक है |
जिनके पास धन है वे समझते हैं कि वे भगवान् हो गये हैं, और हर चीज को खरीद सकते हैं | सहायता भी करते हैं तो व्यवसाय में लाभ-हानि देखते हुए | जैसे कई सामानों के पैकेट पर लिखा होता हैं कि यदि आप इसे खरीदते हैं तो आपके चुकाए मूल्य में से एक रूपया किसी जरूरतमंद को दिया जाएगा | यानि धंधा का धंधा, और परोपकार का परोपकार भी | ऐसे परोपकारियों, दानियों व समाजसेवकों को 'व्यावसायिक परोपकारी' कहते हैं |
मुझे प्रतीक्षा है कुछ वास्तविक परोपकारियों की जो सहायक बन सकें, बिना बोझ बने | जो सहायता कर सकें, न कि एहसान |
मैं जानता हूँ कि वे लोग दुर्लभ होते हैं और आसानी से मिलते भी नहीं | लेकिन यदि मुझे व्यावसायिक परोपकारियों से ही सहयोग लेकर काम करना होता तो मुझे इतने साल नहीं लगते अपने अभियान को आरम्भ करने में | और फिर मैं भी कोई सामान्य व्यक्ति तो हूँ नहीं, ईश्वर ने भी तो मुझे इकलौता ही बनाया है ? -विशुद्ध चैतन्य
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