31 दिसंबर 2014

कलियुगी साधना

कल एक सन्यासी मित्र ने प्रश्न किया जिसका भाव कुछ इस प्रकार था: "आप एक सन्यासी होते हुए ये फिल्म विल्म के चक्कर में क्यों पड़ गए ? आपको ईश्वर की उपासना-साधना में समर्पित होना चाहिए था ? आपको सांसारिक झंझटों से दूर होना चाहिए था ?"

मैंने उन्हें अपने पुराने पोस्ट का लिंक दे दिया क्योंकि वे जो कह रहे थे सही कह रहे थे और मैं प्राचीन संन्यास परम्परा का बिलकुल भी पालन नहीं कर रहा हूँ | क्योंकि मैं कलियुगी सन्यासी हूँ |
मैंने यदि स्वयं को न पहचाना होता तो शायद मैं भी वही करता क्योंकि तब वही करना पाखण्ड नहीं होता | मैं भी पारंपरिक सन्यासियों की तरह कटोरा लेकर भीख माँगना या सामाजिक कुरीतियों और धर्म और संस्कृति के नाम पर राजनीति और उपद्रव करने वालों द्वारा बेरोजगार युवाओं को बहकाए जाते देखकर भी आँखें मूंद लेता |

हमारा तो जो होना है सो होगा क्योंकि हम तो समर्पित हैं ईश्वरीय कार्यों के लिए | और ईश्वर की श्रेष्ठ कृति मानवों की अवहेलना करके भागना सन्यास धर्म का अपमान मानता हूँ मैं | सन्यास में एक कर्म होता है जिसे हम तपस्या या साधना कहते हैं | साधना का अर्थ होता है साधन का प्रयोग करते हुए साध्य को प्राप्त होना और मैं भी वही करता हूँ | मुझे ईश्वर ने जो साधन उपलब्ध करवाया है, मैं उसका प्रयोग करते हुए वही साधना कर रहा हूँ | जैसे जैसे मेरी साधना गहन होती जाएगी ईश्वर मुझे वर्तमान से श्रेष्ठ साधन उपलब्ध करवा देंगे और अधिक चुनौतीपूर्ण स्थिति में ले आयेंगे | यही कलियुगी साधना है |

यदि सब कुछ ठीक ठाक है, कोई विरोधी नहीं है और कोई संघर्ष नहीं है, तो आप ठहरे हुए हैं | आप गतिहीन हैं जबकि ब्रम्हांड में अणु-परमाणु से लेकर विशाल आकाशगंगा तक गतिहीन नहीं है | क्योंकि आपका शरीर ही आपका वाहन है और उसकी कोशिकाएँ तक ठहरी हुईं नहीं हैं |

लेकिन जैसे ही हम गति करना शुरू करेंगे विरोधी और बाधाएं भी आनी शुरू हो जायेंगे | मूढ़ विरोधी वे बाधाएं हैं, जिसे कथाओं और कहानियों में ऋषियों की तपस्या भंग करने वाले उपद्रवियों के रूप में हम पढ़ते आये थे |


सतयुग में कम्प्यूटर और इन्टरनेट नहीं थे इसलिए ऋषि मुनि ध्यान, टेलीपेथी व अन्य विधियों का प्रयोग करते थे समाज कल्याण हेतु | वे नयी नई उपचार विधि व औषधि खोजा करते थे | वे कथा व काव्य लिखा करते थे, वे बच्चों को युद्धकौशल, योग, धार्मिक क्रिया कलाप व कृषि विज्ञान सिखाया करते थे.... ये सभी संयासी या संत के कार्य हुआ करते थे | वे परोपकार का पाठ पढाया व अपनाया करते थे | वर्तमान संतों-महंतों कि तरह "मैं सुखी तो जग सुखी" के सिद्धांत पर नहीं चलते थे | यह ठीक है कि संन्यास का अर्थ ही स्वेच्छा से अपने लिए दिशा तय करना है, लेकिन सन्यास कोई परम्परा नहीं है | सन्यास एक मुक्ति है समाज से अलग होकर समाज को देखने व समझने के लिए व अंतर्मन से दिशा निर्देश लेने के लिए |

इसलिए मैंने फिल्म का विषय चुना था क्योंकि इसी फिल्म के कारण कुछ लोग बेरोजगारों को उपद्रवी बना रहे हैं तो कुछ को यह समझा रहे हैं कि धर्म खतरे में हैं | वास्तव में ये वे लोग हैं जिनकी दुकानें खतरे में हैं | जो विश्वास व श्रृद्धा को अपने स्वार्थ के लिए व्यवसाय में रूपांतरित कर चुके हैं | वास्तविक धर्म से जानबूझ कर लोगों को दूर रखा ताकि लोग इनपर निर्भर रहें और ये धर्म के नाम पर भोले-भाले धर्म-भीरू लोगों का उपयोग राजनैतिक व व्यवसायिक उद्देश्यों के लिए कर सकें |

यदि वास्तव में सन्यासी हैं तो भेड़चाल से स्वयं को मुक्त कीजिये क्योंकि ऐसे भेड़ों की कमी नहीं है इस देश में जो यह सोचकर भेड़ियों की जयजयकार करते हैं कि वे उनका शिकार नहीं करेंगे | लेकिन जब दंगा होता है तब ये भेड़िये भूल जाते हैं सबकुछ |
  • सन्यास का पहला नियम यह कि मृत्यु से भय मुक्त होना | और जो मृत्यु से भयभीत है उसे सन्यास मार्ग से मुक्ति ले लेनी चाहिए | 
  • दूसरा नियम है स्वयं को समझना व स्वयं के भीतर बैठे ईश्वर स्वरुप के आदेशानुसार कार्य करना | 
  • तीसरा नियम है आप न किसी पर दबाव डालना और न किसी के दबाव में आना | 
-विशुद्ध चैतन्य

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