ठाकुर दयानंद देव जी ने कहा था, "मैं अध्यात्म और भौतिक जगत के बीच सेतु बनाना चाहता हूँ |"
1937 में उनकी मृत्यु के साथ ही ध्वस्त हो गया क्योंकि उनका यह विचार किसी के पल्ले नहीं पड़ा | उनके शिष्यों और भक्तों ने उनके स्वप्न की समाधि बना दी और उनकी मूर्ति |
वे ऐसे संत थे ओशो से पहले जिन्होंने सन्यासियों का विवाह स्वयं करवाया और यह कहा कि एक गृहस्थ ईश्वर के अधिक करीब हो सकता है क्योंकि वह ईश्वर के विधान का अनादर नहीं करता | जबकि त्याग के नाम पर अपनी जिम्मेदारियों से भागे लोग ईश्वर की नजर से गिर जाते हैं क्योंकि वे ईश्वर की रचना का अपमान करते हैं | उनका मानना था कि सन्यास से यदि आप स्वयं को समझ जाते हैं, तो ही सन्यास सार्थक है, वर्ना सन्यास व्यर्थ है |
आध्यात्म और भौतिक जगत एक दूसरे के शत्रु नहीं सहयोगी हैं | आध्यात्म मानसिक समृद्धि है और संसार भौतिक | जबकि अधिकाँश आज भी अध्यात्म और संसार को दो विपरीत ध्रुव मानते हैं | यदि भौतिक जगत मिथ्या है तो ईश्वर भी मिथ्या है ऐसा मानना था ठाकुर दयानंद देव जी का | सबसे पहले भौतिक शरीर से मुक्ति पाना चाहिए जो भौतिक जगत की निंदा करते हैं उन्हें | भौतिक शरीर में रहकर, भौतिक जिव्हा से भौतिक जगत की निंदा करना, यह दर्शाता है कि वह अपने शरीर को भौतिक नहीं मानता | और ऐसे लोग जीवन भर ईश्वर की खोज में बाहर उसी तरह भटकते रहते हैं,जैसे कस्तूरी मृग कस्तूरी की खोज में जंगलों में भटकता है | ~विशुद्ध चैतन्य
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