एक विश्वविख्यात प्रकाण्ड विद्वान रामायण वाचक मित्र थे (कल तक) और उनके प्रोफाइल में बड़े बड़े पूजा अनुष्ठान और धार्मिक सभाओं की तस्वीरें लगीं हुईं थी | उन्होंने मुझ पर व्यंग्य किया जिसका आशय कुछ इस प्रकार है;
"न खुद ज़िन्दगी में कुछ बन पाए, न किसी को कुछ दे पाए और न ही पा सके तो धर्म को गालियाँ देनी शुरू कर दी | गीता और रामायण पढ़ने वालों को कोसना शुरू कर दिया | जो संघ, समाज का इतना भला कर रहा है उसे कोसना शुरू कर दिया....... ऐसे लोगों के कारण ही समाज का पतन हो रहा है | अरे साधू संत तो किसी की भी निंदा नहीं करते वे सिर्फ अपने काम से काम रखते हैं |"
जबकि वास्तव में मैं कभी किसी संगठन या सम्प्रदाय को नहीं कोसता और न ही किसी के भी धर्म-ग्रंथों की निंदा करता हूँ | क्योंकि उनकी स्थापना का उद्देश्य शुरू में वह नहीं होता जो कालांतर में हो जाता है | मैं केवल उनका विरोध करता हूँ जो, उपद्रव करते हैं, फिर चाहे वे किसी भी संगठन या समप्रदाय के हों |
मैंने सुना है कि गौतम बुद्ध को जब कोई गालियाँ देता था तो वे चुपचाप खड़े होकर सुनते थे और जब वह चुप हो जाता था तो पूछते थे कि अब मैं जाऊं ? कोई उन पर जूते चप्पल फेंकते थे तो भी वे चुपचाप खड़े हो जाते थे और फिर उनको धन्यवाद कहकर आगे निकल जाते थे | इसी प्रकार मुस्लिमो के धर्म संस्थापक भी थे जो उनपर कूड़ा फेंकने वाला यदि किसी दिन उनपर कूड़ा नहीं फेंकता था, तो हालचाल पूछने पहुँच जाते थे..... ये उदाहरण हैं, जो सभी धार्मिक लोग सुनाते हैं लेकिन व्यवहार में कोई नहीं लाता | लेकिन दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वे उन महान आत्माओं की तरह हो जाएँ | ठीक वैसे ही जैसे कोई माँ बाप अपने घर शहीद भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद को पैदा नहीं करना चाहता लेकिन हर कोई चाहता है कि हमारे देश में ऐसे महान क्रांतिकारी अवश्य पैदा हों |
तो वे मित्र भी मुझे समझाने आये थे कि मैं आत्मावलोकन करूँ.... यह एक रटा हुआ डायलोग है और यदि गौतम बुद्ध भी इनके सामने होते तो उनको भी यही कहते और महावीर को भी यही कहते | श्री कृष्ण जब अर्जुन को उपदेश दे रहे थे तब भी ये लोग यही कह रहे होंगे और जब राम की सेना रावण के सामने खड़ी रही होगी तब भी ये लोग यही कह रहे होंगे | इनको बहुत बड़ा भ्रम है कि ये रामकथा बाँचते हैं और स्कूल में गणित सिखाते हैं, शादी कर ली बच्चे पैदा कर लिए... तो ये हम से श्रेष्ठ हो गये | ये उन लोगों से स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे जो संन्यास लेकर समाज से अलग रह रहे हैं | ये इस भ्रम में हैं कि संन्यासी केवल भीख मांगकर अपना गुजर बसर करते हैं | संन्यासी अपने परिवार के लिए कुछ नहीं कर पाए तो वे समाज के लिए भी कुछ करने योग्य नहीं होते |
मेरे जैसे संन्यासी किसी काम के नहीं होते...वाली विचारधारा भौतिक जीवन को ही सर्वस्व मान लेने वालों की होती है | छात्रवास में पढ़ रहे अपने बच्चों के लिए भी इनके यही भाव होते होंगे शायद | और आज समाज में मेरा प्रभाव कितना बढ़ रहा है, वह बढ़ते विरोधियों और मेरे पोस्ट पर उल्टियाँ करते संघी-बजरंगियों से ही पता चल रहा है | साल भर पहले तक यह स्थिति नहीं थी और फ्रेंड रिक्वेस्ट भी बहुत ही कम आया करती थी |

गौतम बुद्ध ने कहा था, "Holding
on to anger is like grasping a hot coal with the intent of throwing it
at someone else; you are the one who gets burned." इसलिए मैं अपने उस क्रोध को दबाकर नहीं रखता, जो समाज व राष्ट्र की दुर्गति देखकर उत्पन्न होता है अपितु अपने लेखन के द्वारा प्रकट कर देना श्रेष्ठ समझता हूँ | अपने क्रोध में उन धर्म और के ठेकेदारों की तरह अँधा होकर दंगे नहीं भड़काता और न ही क़त्ल-ए-आम करता हूँ और न ही समाज में भेदभाव और नफरत के बीज बोता हूँ | मुझे सुधारने में अपना कीमती समय व्यर्थ करने के स्थान पर अपने समाज में फैली गंदगी और बुराइयों को दूर करने के जतन करें | आँखमूंदकर राम या अल्लाह भरोसे बैठे रहने से समाज का भला नहीं होगा और न ही भला होगा हम जैसे चैतन्यों का मुँह बंद करने | अपनी आँख और दिमाग के दरवाजे खोलिए और देखिये कि हम जो कह रहे हैं, उसमें सच्चाई है या नहीं | और सच्चाई दिखती है तो दूर कैसे करें उसका उपाय खोजिये अपने अपने ईश्वरीय ग्रंथो में, अपने अपने शास्त्रों और पुराणों में | केवल शास्त्र, कुरान, गीता, बाइबल कंठस्थ कर लेने व रट्टू तोतों की तरह दोहरा देने मात्र से न तो व्यक्तियों का भला होने वाला है और न ही समाज व राष्ट्र का | यदि मेरे लेख समझ में नहीं आते तो मुझसे और मेरे लेखों से दूरी बना लीजिये हमेशा के लिए या फिर होशपूर्वक समझने का प्रयत्न करें | ~विशुद्ध चैतन्य