एक देश है और भिन्न-भिन्न मत और संस्कार | लेकिन धर्मो के ठेकेदार और राजनीतिज्ञ यह भूल गये जिसके कारण एक उपद्रव और अराजकता पैदा हो गयी देश में | लोग भूल गये कि कई राज्यों को मिलाकर एक देश बना है न कि एक देश के कई राज्य बने हैं | लोग भूल गये कि हर भू-भाग के अपने अपने संस्कार थे और अपने अपने खान-पान और पहनावा | सरदार पटेल की पहल पर सभी को हम एक देश के नाम पर जोड़ पाए लेकिन आज हम फिर उन्हें अलग अलग करने पर तुले हुए हैं |
और यह सब पूरी सोची-समझी रणनीति है ऐसा मैं मानता हूँ | आज ब्राहमण समाज फिर से हावी होना चाह रहा है इसलिए उन्होंने शाकाहारियों और माँसाहारियों के बीच दीवार खड़ी करनी शुरू कर | इसलिए उन्होंने भाषा और प्रांत के आधार पर दीवारें खड़ी करनी शुरू कर दी | जबकि शहरों में हम पाएंगे कि ऐसी कोई दीवार है ही नहीं | यही माँसाहारियों से नफरत करने वाले लोग बड़े प्रेम से जुकरबर्ग से गले मिलते हैं, माइक्रोसॉफ्ट से लेकर गूगल के सीईओ तक से प्रेम से मिलते हैं, उन्हें अपने देश में आमन्त्रित करते हैं.... और वही लोग जयकारा लगाते हैं जो यहाँ मांसाहारियों को कोसते फिरते हैं |

क उन्माद और नफरत फैलाने वालों से, लेकिन इनको आपत्ति है प्रेम और सौहार्द की बातें करने वालों से | इनको आपत्ति नहीं है कि देश की भूमि विदेशियों को सौंपी जा रही है एफडीआई और विकास के नाम पर, लेकिन इनको आपत्ति है मोदी के विरोध में बोलने वालों से |
इनकी दलील भी बड़ी प्यारी होती है "इन्सान से नही, बुराइयों से नफरत करो !" लेकिन ये खुद इंसानियत के दुश्मन बने हुए हैं और बुराइयों के गले में हार पहनाते हैं |
फिर शरीफों को देख लें जिनमें, धार्मिक संत-महंतों से लेकर ब्रह्मज्ञानी, तत्वज्ञानी, आत्मज्ञानी, महाज्ञानी, अदानी अम्बानी.... जैसे लोग तो आते ही हैं, बल्कि वे भी आ जाते हैं, जो क्रिकेट का स्कोर पूछते, पिज़्ज़ा और बर्गर ठूँसते, नौकरियों के लाइन में लगे, साल में दो बार तिरंगे वाली प्रोफाइल पिक और शहीदों कि तस्वीरें शेयर करते मिल जायेंगे | इनकी दुनिया ही अलग है बिलकुल | इनको नहीं पता कि गाँव का किसान कैसे जी रहा है, इनको नहीं पता कि आदिवासी कैसे जी रहे हैं.....

आज कितने ही लोग अमेरिका, जर्मन और फ्रांस के शहरों से निकल कर जंगल में रहने जा रहे हैं | कितने ही लोग प्रयोग कर रहे हैं कि बिना पैसों के कैसे जिया जाए और कई लोग आठ-दस साल से बिना एक रूपये कमाये केवल वन्य जीवन जी रहे हैं और खुद को सुखी महसूस कर रहे हैं |
लेकिन भारत की स्थिति अभी उलटी है | अभी भारत पैसों के ढेरों की तरफ दौड़ रहा है और पैसा दिख रहा है विदेशियों के पास | इसलिए हर नेता और मंत्री से लेकर संत-महंत तक विदेशों की दौड़ में लगे हुए है | उनको कोई फर्क नहीं पड़ता कि यहाँ धर्म के नाम पर मार-काट हो रहा है, जाति के नाम पर मार-काट हो रहा है, शोषण और अत्याचार हो रहा है गरीबों का.... यह सब उनके सोचने की चीजें नहीं हैं | उन्हें तो बस हजारों करोड़ की रद्दी बटोरने से ही फुर्सत नहीं हैं | पूरा देश भी यदि आपसी नफरत और मारकाट में सुलग जाए तो भी उनकी सेहत में कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनकी भक्ति तो डॉलर में हैं | उनकी भक्ति तो विदेशों में रखे बैंक बेलेंस में हैं...... लेकिन इन डॉलर और रुपयों से पैसों की भूख मिट गयी होती, तो जुकरबर्ग सुखी इन्सान होता, अदानी अम्बानी और अन्य उद्योगपतियों को बैकों के लोन हजम कर लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती और न ही आवश्यकता पड़ती और अधिक की चाह में दूसरों की जमीनें छीनने की |
चलिए कोई बात नहीं हर व्यक्ति अपने अपने जीवन कर्मों के अनुसार जी रहा है.... लेकिन जो शोषित हैं, पीड़ित हैं, वे क्यों इनके पीछे भाग रहे हैं ? वे क्यों नहीं समझ रहे है कि ये लोग हमें आपस में लड़ा रहे हैं निजी, राजनैतिक व व्यावसायिक लाभ के लिए ? ये क्यों नहीं समझ रहे कि हमारी मौत से ही इनको लाभ होना है क्योंकि ये जमीनें उनको मिल जायेंगी जिसपर आज कम से कम दो वक्त की रोटी तो उगा ही पा रहे हैं | क्यों नहीं हम सोचते कि हम आपस में एक ही हैं कोई भेड़ नहीं हमारे मन में | क्यों नहीं हम आपस में ही हाथ मिला लेते और नेताओं के वादों और भरोसों को ठुकराकर आत्मनिर्भर होने का प्रयत्न करते ?
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