यह प्रश्न मुझसे अक्सर पूछा जाता है और शायद हर किसी के मन में यह प्रश्न होगा ही कि कोई ऐसा उपाय क्यों नहीं निकाल पाए आज तक धर्मगुरु और धर्मों के ठेकेदार कि सभी लोग आपस में उलझने के बजाये एक दूसरे के सहयोगी हो जायें और
राष्ट्र के विकास में योगदान दें |
पहली बात तो हमें यह समझ लेनी चाहिए कि आपसी सौहार्द धर्मों के ठेकदारों, धनकुबेरों और राजनेताओं के सेहत के लिए हानिकारक हैं | हमारी आपसी एकता न केवल हमें समृद्ध कर देगी, बल्कि आर्थिक व सामाजिक शोषण से भी मुक्त कर देगी | ऐसी स्थिति में हमें कोई आपस में जाति या धर्म के नाम पर लड़ाकर न तो राजनैतिक रोटियाँ सेंक पायेगा और न ही प्राकृतिक सम्पदा को क्षति ही पहुँचा पायेगा | यदि एस हुआ तो भूमाफिया, खनन माफिया, आतंकवाद, नक्सलवाद..... सभी के भूखों मरने के दिन आ जायेंगे | यदि ये लोग भूखों मरेंगे तो अपराधियों, घोटालेबाजों को कुर्सियां खरीदने, सांसद खरीदने के लिए पैसे भी नहीं मिलेंगे और उनकी राजनैतिक और धार्मिक दुकाने पोलियोग्रस्त हो जाएँगी | तो जाहिर सी बात है कि उनके लिए धार्मिक दड़बों और उनके नाम पर आपसी मतभेद बनाये रखना अत्यंत आवश्यक है | वे भला क्यों ऐसा कोई उपाय खोजना चाहेंगे जिससे आपसी सौहार्द बने ?
दूसरी बात हमें यह भी स्वीकार लेना चाहिए कि वर्ण और जातिव्यवस्था आसानी से समाप्त नहीं की जा सकती क्योंकि यह अब पानी में नमक की तरह घुल चुकी है | तो हमें इन सबको स्वीकारते हुए ही चलना होगा | इनसे मुक्ति की बातें करना कुछ वैसा ही है जैसे सागर से नमक निकालकर उसे मीठा बनाना | पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी सौ तर्क दें कि इसे समाप्त किया जा सकता है और सौ तरह के अभियान चला लें....लेकिन मैं जानता हूँ कि यह असंभव है वर्तमान परिस्थितियों में |
तीसरी बात यह कि यह सारे अभियान जो भेदभाव मुक्ति के नाम पर चलाये जा रहे हैं, या संगठन बनाए जाते हैं... सब राजनैतिक हैं, इनका वास्तव में भेदभाव मिटाने का कोई उद्देश्य होता ही नहीं | बहुत ही कम लोग होंगे ऐसे जो यह चाहते हैं कि भेदभाव मिटे | जैसे आरक्षण को ही लें लें.... आज आरक्षण हटाने की बात करते ही जिनको आरक्षण का लाभ मिल रहा है वे मैदान पर उतर आयेंगे लड़ने-मरने के लिए | बड़े से बड़े नेता भी आरक्षण के विरोध में नहीं हैं क्योंकि उनको आरक्षण से जो लाभ मिलता है वह सामान्य श्रेणी में आने से नहीं मिलेगा |
तो प्रश्न यह कि आपसी सौहार्द बने तो बने कैसे ?
अब इसके लिए पहले तो यह समझना होगा कि हम लोग अलग अलग हो कहाँ से रहे हैं ?
हम बँट रहे हैं कुछ ऐसी मान्यताओं के कारण जो प्राकृतिक नहीं हैं | जैसे कि निराकार ईश्वर की अवधारणा | हमने एक काल्पनिक ईश्वर को महत्व दे दिया बिना यह समझे कि वास्तव में ईश्वर है क्या | यदि मेरी नजर से समझें तो ईश्वर है जीवन देने वाले वे तत्व जिन्हें हम पंचतत्व कहते हैं | हम सभी प्रकृति को ही भगवान् के रूप में पूजते रहे जैसे कि सूर्य यानि आग्नि, नदी, सरोवर, सागर यानि जल, भूमि, आकाश यानि शुन्य, पेड़-पौधे, वन खेत... आदि सभी ईश्वर ही हैं हमारे लिए क्योंकि ये जीवनदायी हैं | यहाँ डॉक्टर फेलिक्स के विचार रख रहा हूँ...
डॉक्टर साहब उड़ीसा में पिछले चार दशकों रह कर आदिवासियों व ग्रामीणों के उत्थान हेतु कार्य कर रहे हैं | तो उन्होंने भी पाया कि प्रकृति के प्रति हम भारतीयों का प्रेम बहुत ही अधिक है | हमनें न केवल प्रकृति को अपना अराध्य बनाया, बल्कि उसका सदुपयोग ही किया | यहाँ एक प्रश्नोत्तर में उन्होंने अपना अनुभव बताया;"मैं जब भारत आया था तो हिंदू धर्म मुझे आकर्षित करता था, अब भी करता है. मैंने हिंदू धर्म का नदियों से, उसके पानी से, सृष्टि से, पहाड़ से लगाव देखा था. अब भी मैं हिंदू धर्म के अनुसार पूजा करता हूं, मंदिर जाता हूं लेकिन जब भी किसी बड़े मंदिर जाता हूं, जहां सिर्फ संगमरमर ही संगमरमर लगे होते हैं, तो सोचता हूं कि इस विशाल मंदिर में क्या भगवान रहता होगा? और रहता होगा तो कैसे? क्या भगवान को नहीं मालूम कि उसका वास बनाने में इस्तेमाल संगमरमर निकालने में बड़े लोगों ने मजदूरों पर कितने तरह के जुल्म किए थे? निश्चित रूप से भगवान यह जानता होगा. जिस तरह का झांसा देकर बड़े लोगों ने मंदिर बनवाए ठीक वैसे ही माइनिंग कंपनियों ने अपने बचाव के लिए बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण शुरू करवा दिया है ताकि लोग उसमें उलझे रहें और उनका कोई विरोध न हो." डॉ० फेलिक्स पेडल
आप ओडिशा में रहकर वर्षों से काम कर रहे हैं. नियमगिरी वाला मामला बहुत चर्चित रहा है और वेदांता का विरोध वहीं हुआ. आपका इस पर क्या कहना है?
"नियमगिरी का मामला अलग है. जब भी वहां काेई माइनिंग कंपनी गई तो सबसे पहले उन्होंने लोगों को यह बताने की कोशिश की कि वह वहां नियमगिरी राजा का विशाल मंदिर बनवा देगी. तब वहां के आदिवासियों ने जवाब दिया कि हमारा भगवान, नियमगिरी राजा मंदिरों में नहीं रहता, वो रह ही नहीं सकता. वह कंक्रीट के जंगल में नहीं, असली जंगल में रहता है, पहाड़ पर खुले आसमान के नीचे. लोग जब कंपनी के झांसे में नहीं फंसे. तब दूसरे रास्ते अपनाए गए. वहां के लोग साफ कहते हैं कि पहाड़ को हमारी जरूरत है और हमें पहाड़ की. ऐसा नहीं है कि आदिवासी नहीं जानते कि इस पहाड़ में सैकड़ों तरह के अयस्क हैं, लेकिन उनके लिए धरती, जंगल, पहाड़ कभी लालच पूरा करने के स्रोत की तरह नहीं रहे. आदिवासी जैव पारिस्थितिकी आधारित अर्थव्यस्था पर चलते हैं, इसलिए कंपनियां उन्हें आसानी से दूसरे समुदाय की तरह झांसा नहीं दे पाती."
तो यह है हमारा भारतीय धर्म और सिद्धांत व आराध्यों के प्रति समर्पण भाव | लेकिन लोगों को प्रकृति से दूर करने के लिए ही शायद यह निराकार और कपोलकल्पित ईश्वरों की स्थापना की गयी | इससे लाभ तो कुछ हुआ नहीं, उलटे वनों और वृक्षों के प्रति लोगों में उदासीनता आ गयी | परिणाम यह हुआ कि पेड़ पौधे लगाने का होशा किसी को रहा नहीं, लेकिन काटते चले गये | आवश्यकतानुसार खनिजों के दोहन के स्थान पर, लूटपाट शुरू हो गयी माफियाओं द्वारा | और जो वास्तविक उस क्षेत्र के निवासी हैं, वे तो गरीब से गरीब होते चले गये, जबकि बाहरी लोग अमीर से अमीर होते चले गये |
दूसरा नुक्सान यह हुआ निराकार ईश्वर से कि कोई सिद्ध नहीं कर सकता कि ईश्वर सही है या गलत | अब इस्लामिक देशों को ही देख लीजिये | इतना खून खराबा हो रहा है लेकिन निराकार ईश्वर नहीं आया किसी की जान बचाने के लिए | न ही ईश्वर उपद्रवियों को को ही रोक पाने में समर्थ है | तो इन निराकार ईश्वरों से भयभीत न तो भूमाफिया हैं, न ही राजनेता हैं, न ही घोटालेबाज हैं, न ही हत्यारे और अपराधी हैं.... लेकिन जो बेचारे शरीफ हैं, जिन्होंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा वे ईश्वर से डरे डरे फिरते हैं | और ईश्वर से इतने डरते हैं कि गलत का भी विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते | बस यही मानकर बैठे रहते हैं कि ईश्वर उनको बाद में सजा दे देगा.....
इसी प्रकार मूर्ती पूजकों की अपनी ही समस्या है | उनका भगवान मदिरों में कैद रहता है तो वह किसी की सहायता कैसे कर सकता है ? फिर इतना कमजोर है कि उसे ठण्ड में शाल ओढ़ाना पड़ता है, चाय पिलानी पड़ती है.......
तो हमें सबसे पहले वापस एकमत से प्रकृति के प्रति श्रद्धाभाव जागृत करना होगा | हमें स्वीकारना होगा कि वृक्ष ही ईश्वर है क्योंकि वह हमें ऑक्सीजन देता है व वर्षा द्वारा जल कि व्यवस्था करता है | हमें स्वीकारना होगा कि नदी, सरोवर, सागर ईश्वर हैं और उन्हें स्वच्छ रखना हमारी ही जिम्मेदारी है | हमें स्वीकारना होगा कि प्राकृतिक खनिजों का दोहन विदेशियों को अमीर बनाने के लिए नहीं, बल्कि स्थानीय निवासियों के आर्थिक उत्थान के लिए होना चाहिए | हमें शाकाहार और माँसाहार का नकली व कुंठित भेदभाव मिटाना होगा | ऐसा भेदभाव जो रुतबा देखकर बदल जाता हो, उसे त्याग ही देना चाहिए | एक तरफ तो माँसाहारियों से घृणा करेंगे, वहीं दूसरी तरफ अपने बच्चे को मांसाहारियों के देश या कंपनी में भेजने में नहीं हिचकेंगे... तो यह दोगलापन घातक ही है | यदि हम ऐसा कर पायें तब हम प्राकृतिक रूप से एक हो पाएंगे | और जब हम प्राकृतिक रूप से एक हो जायेंगे, तब हमे कोई आपस में नहीं लड़ा पायेगा |
रही मान्यताओं की बात तो सभी अपनी अपनी मान्यताओं को मानें, लेकिन घर तक ही सीमित रखें | जब बाहर जाएँ तो सभी एक हो जाएँ, सभी भारतीय हो जाएँ | एक दूसरे की निंदा करने के स्थान पर उनके विरुद्ध कमर कस लें, जो देश व प्राकृतिक संपदाओं को क्षति पहुँचा रहे हैं | सभी मिलकर वृक्षारोपण करें अपने आस पास के पार्कों में या बंजर हो रहे पहाड़ों में |
जब हम इस स्थिति में पहुँचेंगे, तब हम उस निराकार को भी समझ पायेंगे, उसे अनुभव भी कर पाएंगे, जिसके लिय हम मूर्खों की तरह खून खराबा कर रहे थे | हम बहुत कुछ समझ पाएंगे अध्यात्मिक....लेकिन पहल तो करनी ही होगी हमें ही | न तो नेता हमारा भला कर पाएंगे और न ही धर्मगुरु और धर्मों के ठेकेदार ही हमारा भला कर पायेंगे | मुझे लगता है कि अब बहुत हो गया, कम से कम अब तो हमें होश में आ ही जाना चाहिए | कम से कम अब जाग जाना चाहिए | ~विशुद्ध चैतन्य
यह ध्यान रखें कि अब दड़बाछाप धर्मों से मुक्ति पानी ही होगी और मानवधर्म को ही अपनाना होगा | वरना कोई अंतर नहीं मिलेगा हिन्दू या मुस्लिम में, सभी एक ही नस्ल के मिलेंगे क्योंकि हर दड़बे में शैतान भेस बदलकर छुपे हुए हैं और हर कोई अपने अपने दड़बों के शैतानों को छुपाने में ही लगे मिलेंगे | अभी तक हम मुस्लिमों के भेस में छुपे शैतानों कि दरिंदगी तो देखते ही आये है, अब हिन्दुओं के भेस में छुपे शैतानों की दरिंदगी भी देख लीजिये |
Posted by AIMIM President introduction on Wednesday, 30 September 2015
Ram Ke Naam Par Qatle Aam #ye_hai_india Ke Report
Posted by Meri Jaan Azamgarh on Wednesday, 30 September 2015
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