आज सुबह सुबह जो महत्वपूर्ण प्रश्न मुझे मैसेज बॉक्स में मिला, उसका उत्तर सार्वजनिक रूप से देना ही मुझे बेहतर लगा |
प्रश्न: Sir ji,
मेरे जीवन में कुछ सवाल हैं, पता नहीं मुझे पूछना चाहिए या नहीं ?
- मानव जीवन में धर्म क्यों जरुरी है ?
- मानव जीवन में धर्म का क्या महत्व होना चाहिए ?
- अलग अलग व्यक्ति या समुदाय के लिए अलग अलग धर्म क्यों ?
- क्या धर्म में विरोधाभास उचित है ?
- क्या अलग अलग धर्म एक दूसरे के विपरीत हो सकते हैं, जबकि ईश्वर तो विरोधाभास कभी नहीं चाहेंगे ?
उत्तर:
- पहली बात तो यह ध्यान में रखें कि प्रश्न तभी उठते हैं, जब व्यक्ति चिन्तन मनन करता है | और जो बिना प्रश्न किये मान लेता है वह जीवन भर कुछ नहीं जान पाता | भागवतगीता हो या उपनिषद... सभी प्रश्नोत्तर ही हैं |
- धर्म न केवल मानव जीवन में, बल्कि पशु-पक्षी से लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के छोटे से ग्रह से लेकर विराट तारामंडल और आकाशगंगाओं के लिए समान रूप से आवश्यक है | यदि धर्म न हो, तब कोई भी ग्रह अपने पथ पर नहीं चलेगा, दिन और रात भी नियमित समय पर नहीं होंगे, मौसम परिवर्तन भी नहीं होगा पृथ्वी पर, न सृजन होगा, न प्रजनन होगा |
- सम्पूर्ण सृष्टि विविधताओं से भरी हुई है और सभी का गुण-धर्म, अकार-प्रकार, रूप-रंग भिन्नताएँ लिए हुए हैं | हम मानवों की अँगुलियों के निशान भी समान नहीं हैं | इसलिए सभी समुदायों के अलग अलग धर्म हैं |
- विरोधाभास् कहीं नहीं हैं, सभी अपने अपने गुण धर्मानुसार ही आचरण कर रहे हैं | जैसे चोर का धर्म है चोरी करना, नेताओं का धर्म हैं घोटाले करना, व्यापारियों का धर्म कालाबाजारी, जमाखोरी करके महँगाई बढ़ाना.... तो ये सभी अपने अपने धर्म का ही पालन कर रहे हैं | केवल हमें उनसे हानि होती है, इसलिए हमें विरोधाभास दिखाई देता है | यदि हम भी उन्हीं के परिवार के अंग होते, या हम भी उनके पार्टनर होते तो हमें यह विश्व का श्रेष्ठ धर्म लगता क्योंकि हमें लाभ हो रहा है |
- जैसा मैंने कहा कि विरोधाभास कहीं नहीं हैं, और सम्पूर्ण विश्व की सुन्दरता ही भिन्नताओं के साथ ही है, इसलिए एक दूसरे के विपरीत दिखाई पड़ते हैं | और ईश्वर कभी कुछ नहीं चाहता, वह तो साक्षी है, दृष्टा है | चाहना न चाहना हम जीवों का ही स्वभाव है |
तो यह तो थे आपके प्रश्नों के क्रमवार उत्तर | अब समझिये कि धर्म क्या है |
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि कोई धर्म नहीं हैं, केवल समुदायों के नाम हैं या यह कहें कि भिन्न भिन्न मतों व मान्यताओं को मानने वालों के समूहों के नाम हैं | इन्हें मैं दड़बा कहता हूँ क्योंकि यही श्रेष्ठ शब्द दिखाई देता है मुझे इन समूहों के लिए | क्योंकि जब आप सनातनी हो जाते हैं, जब आप सनातन धर्म को समझ जाते हैं, जब वास्तव में धर्म को समझ जाते हैं, तब ये सब दड़बे ही दिखाई देते हैं, जिनका कोई अनदेखा मालिक होता है, जैसे बम्बैया फिल्मों में होता है बॉस, जो विदेश में कहीं रहता है और जिसे फिल्म के अंत तक कोई नहीं देख पाता और फिर जब हीरो उसे खोज निकालता है, तब जमकर उसकी पिटाई करता है | तब तक उनके गुर्गे ही सारे उपद्रव मचाये रखते हैं | बिलकुल ठीक वैसे ही इन दड़बों में भी होता है |
हर दड़बे का एक अनदेखा मालिक होता है, कुछ ऑथोराइज़ड एजेंट्स होते हैं, जो दड़बों के नियम तय करते हैं कि कैसे खाना है, क्या खाना है, क्या पहनना है, कब सोना है, कब उठना है, किससे दोस्ती रखनी है, किससे नफरत करनी है....आदि इत्यादि | हर दड़बों में अनदेखे ईश्वर के कई दफ्तर होते हैं, उनमें ईश्वर अपने अपने समय पर आते हैं और लोगों की शिकायतें सुनते हैं | उनसे मिलने के लिए उनके एजेंट्स को दान-दक्षिणा देना होता है, तब वह ईश्वर के दर्शन करवाता है, वह भी अपने ही बनाये मूर्तियों के रूप में... असल ईश्वर वहां है या नहीं, वह तो उसे भी नहीं पता होता |
तो विरोधाभास जो आपको दिखता है वह दड़बे के भीतर होने के कारण ही दिखता है, क्योंकि हर दड़बे के अपने अपने ईश्वर हैं अपने अपने मालिक और नियम कानून | लेकिन यदि आप सनातन धर्म को समझते हैं, जानते हैं, जीते हैं... जैसे कि पशु-पक्षी, सम्पूर्ण सौरमंडल... तो आपको बिलकुल यह सब वैसा ही लगेगा, जैसे किसी बगीचे में चले जाएँ और रंग बिरंगे फूलों, पेड़, पौधों को देखकर लगेगा | वहां आपको कोई विरोधाभास नहीं दिखाई देगा | यदि आप अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखें तो आपको पृथ्वी बहुत ही सुंदर दिखेगी, कोई विरोधाभास नहीं दिखेगा | इसलिए यदि आप अपना धर्म समझना चाहते हैं, तो स्वयं को समझिये, स्वयं को जानिये... ये किताबी धर्म दड़बों के धर्म है, जिसे उन दड़बों के मालिकों के एजेंट्स लिखते हैं.... ईश्वर कोई किताब नहीं लिखता, वह तो सृष्टि रचता है | ~विशुद्ध चैतन्य
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