कई हज़ार वर्ष पहले ईश्वर जब अनपढ़ हुआ करते थे, तब उनकी रूचि कला और संगीत में हुआ करती थी | वे हमेशा कुछ न कुछ कलात्मक चीजें बनाया करते रहते थे और नई नई संगीत भी उनमें समाहित कर देते थे | जैसे कि झरना बनाया और कल-कल की मधुर संगीत साथ में दे दी | चिड़िया बनाया और मधुर गीत उनको दे दिया | स्त्री बनाया तो सुमधुर स्वर उनको दिया.... तो जब तक ईश्वर और मानव अनपढ़ थे, दोनों में बहुत ही अच्छा तालमेल था | प्रकृति की उपासना करते थे मानव और उसकी रक्षा भी करते थे | जितने पेड़ काटते उतने ही लगाते भी थे अनजाने ही | इस प्रकार न तो जल की समस्या होती थी और न ही पर्यावरण प्रदूषित होता था | न ईश्वर को मानवों से कोई शिकायत थी और न ही मानवों को ईश्वर से |
लेकिन कुछ वर्षों बाद मनुष्यों ने समस्या खड़ी करनी शुरू कर दी | उन्होंने पढ़ने लिखने की कला का अविष्कार कर लिया और फिर अंग्रेजी भी सीख ली | ईश्वर के तो होश ही उड़ गये कि अब इनसे बात करें तो करें कैसे ? जब ईश्वर ने देखा कि ये मनुष्य जाति हाथ से ही निकली जा रही है... तो फिर उसने भी पढ़ना लिखना सीखा और फिर संविधान लिख दिया | और साथ में घोषणा कर दी कि जो इस किताब को नहीं पढ़ेगा और उसमें दिए नियमों के विरुद्ध चलेगा उसे नरक भेजदूंगा |
बस उसके बाद ईश्वर ने कान पकड़े कि अब कभी कोई नई कलाकृति नहीं बनाऊंगा | इन मानवों को झेलना ही भारी पड़ रहा है | अब वे ईश्वरीय किताबें ही अंतिम सत्य हो गईं और जो उसमें लिखा है उससे जरा भी कोई इधर से उधर हो जाता, वह अधर्मी मान लिया जाता |
ईश्वरीय किताब लिखे जाने से पहले तक धार्मिक गुरु भी नहीं हुआ करते थे केवल अध्यात्मिक गुरु ही हुआ करते थे, क्योंकि धार्मिक गुरु बनने के लिए किताबी ज्ञान का होना आवश्यक होता है और ईश्वर तो स्वयं अनपढ़ थे तो लिखते कैसे ईश्वरीय किताब ?
उस समय शिष्य गुरु के पास आध्यात्मिक ज्ञान और शिक्षा प्राप्त करने जाते थे | शिष्य का गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण व आदर का भाव हुआ करता था और गुरु की हर प्रकार से सेवा करता...... तो उस समय रट्टा मार पढ़ाई जैसी कोई सुविधा नहीं थी | न ही फर्रे चलाने का फैशन होता था | नम्बर लाने की भी कोई होड़ नहीं थी और न ही डिग्री बटोरने की चिंता थी | भारी भरकम फीस का भी कोई झंझट नहीं था | शिष्य को गुरु के आश्रम में काम करना होता था और बदले में गुरु से शिक्षा प्राप्त होती थी | शिक्षा में वह युद्ध कौशल के साथ साथ कृषि विज्ञान भी सीखता और शिक्षा पूरी करने के बाद उसे आज की तरह कोई प्रोफेशनल कोर्स भी नहीं करना पड़ता था | गुरुकुल से निकलते ही वह सर्वगुण संपन्न माना जाता था | वह न केवल स्वयं की रक्षा में सक्षम होता था, बल्कि दूसरों की रक्षा भी करता था | वह आत्मनिर्भर हो जाता बहुत ही जल्दी क्योंकि खेत उसके पास अपनी होती और उस खेत से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लिया करता था या फिर शिकार करके परिवार का भरण पोषण कर लिया करता था |
फिर जैसे ही ईश्वर ने किताब लिख दी... बस तब से अध्यात्मिक गुरुओं का अस्तित्व ही मिटने लगा क्योंकि धार्मिक गुरुओं का युग शुरू हो चुका था | अब सब कुछ ईश्वर ने लिख ही दिया था तो अध्यात्मिक गुरु से आत्मिक ज्ञान व शिक्षा की किसी को कोई आवश्यकता नहीं थी | अब तो बस किताब उठाओ, रट्टा मारो और बन जाओ धार्मिक या धर्मगुरु | अब चिन्तन-मनन, ध्यान साधना आदि सब आउटडेटेड सिस्टम हो चुका था | फिर शिष्यों के पास भी समय नहीं था और न ही इतना धैर्य | उनका तो सीधा सा हिसाब होता था कि फीस लो मुँह मांगी और हमें डिग्री दे दो |
इस प्रकार हम देखते हैं कि ईश्वरीय किताबें व्यक्ति को आगे बढ़ने नहीं देतीं | वे संकुचित मानसिकता का व्यक्ति बना देती हैं और यह संकुचन इतना तनाव पैदा करने लगती है कि धर्म गुरु और धार्मिक लोग नफरत के ज़हर उगलने लगते हैं, दंगा-फसाद करने लगते हैं | ~विशुद्ध चैतन्य
नोट: यह मेरा व्यक्ति विचार है कृपया इसे स्वयं पर या किसी और पर थोपने का प्रयास न करें |

लेकिन कुछ वर्षों बाद मनुष्यों ने समस्या खड़ी करनी शुरू कर दी | उन्होंने पढ़ने लिखने की कला का अविष्कार कर लिया और फिर अंग्रेजी भी सीख ली | ईश्वर के तो होश ही उड़ गये कि अब इनसे बात करें तो करें कैसे ? जब ईश्वर ने देखा कि ये मनुष्य जाति हाथ से ही निकली जा रही है... तो फिर उसने भी पढ़ना लिखना सीखा और फिर संविधान लिख दिया | और साथ में घोषणा कर दी कि जो इस किताब को नहीं पढ़ेगा और उसमें दिए नियमों के विरुद्ध चलेगा उसे नरक भेजदूंगा |
बस उसके बाद ईश्वर ने कान पकड़े कि अब कभी कोई नई कलाकृति नहीं बनाऊंगा | इन मानवों को झेलना ही भारी पड़ रहा है | अब वे ईश्वरीय किताबें ही अंतिम सत्य हो गईं और जो उसमें लिखा है उससे जरा भी कोई इधर से उधर हो जाता, वह अधर्मी मान लिया जाता |
ईश्वरीय किताब लिखे जाने से पहले तक धार्मिक गुरु भी नहीं हुआ करते थे केवल अध्यात्मिक गुरु ही हुआ करते थे, क्योंकि धार्मिक गुरु बनने के लिए किताबी ज्ञान का होना आवश्यक होता है और ईश्वर तो स्वयं अनपढ़ थे तो लिखते कैसे ईश्वरीय किताब ?
उस समय शिष्य गुरु के पास आध्यात्मिक ज्ञान और शिक्षा प्राप्त करने जाते थे | शिष्य का गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण व आदर का भाव हुआ करता था और गुरु की हर प्रकार से सेवा करता...... तो उस समय रट्टा मार पढ़ाई जैसी कोई सुविधा नहीं थी | न ही फर्रे चलाने का फैशन होता था | नम्बर लाने की भी कोई होड़ नहीं थी और न ही डिग्री बटोरने की चिंता थी | भारी भरकम फीस का भी कोई झंझट नहीं था | शिष्य को गुरु के आश्रम में काम करना होता था और बदले में गुरु से शिक्षा प्राप्त होती थी | शिक्षा में वह युद्ध कौशल के साथ साथ कृषि विज्ञान भी सीखता और शिक्षा पूरी करने के बाद उसे आज की तरह कोई प्रोफेशनल कोर्स भी नहीं करना पड़ता था | गुरुकुल से निकलते ही वह सर्वगुण संपन्न माना जाता था | वह न केवल स्वयं की रक्षा में सक्षम होता था, बल्कि दूसरों की रक्षा भी करता था | वह आत्मनिर्भर हो जाता बहुत ही जल्दी क्योंकि खेत उसके पास अपनी होती और उस खेत से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लिया करता था या फिर शिकार करके परिवार का भरण पोषण कर लिया करता था |
फिर जैसे ही ईश्वर ने किताब लिख दी... बस तब से अध्यात्मिक गुरुओं का अस्तित्व ही मिटने लगा क्योंकि धार्मिक गुरुओं का युग शुरू हो चुका था | अब सब कुछ ईश्वर ने लिख ही दिया था तो अध्यात्मिक गुरु से आत्मिक ज्ञान व शिक्षा की किसी को कोई आवश्यकता नहीं थी | अब तो बस किताब उठाओ, रट्टा मारो और बन जाओ धार्मिक या धर्मगुरु | अब चिन्तन-मनन, ध्यान साधना आदि सब आउटडेटेड सिस्टम हो चुका था | फिर शिष्यों के पास भी समय नहीं था और न ही इतना धैर्य | उनका तो सीधा सा हिसाब होता था कि फीस लो मुँह मांगी और हमें डिग्री दे दो |
इस प्रकार हम देखते हैं कि ईश्वरीय किताबें व्यक्ति को आगे बढ़ने नहीं देतीं | वे संकुचित मानसिकता का व्यक्ति बना देती हैं और यह संकुचन इतना तनाव पैदा करने लगती है कि धर्म गुरु और धार्मिक लोग नफरत के ज़हर उगलने लगते हैं, दंगा-फसाद करने लगते हैं | ~विशुद्ध चैतन्य
नोट: यह मेरा व्यक्ति विचार है कृपया इसे स्वयं पर या किसी और पर थोपने का प्रयास न करें |

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