11 जून 2016

....वे सभी मानसिक रूप से विक्षिप्त-शूद्र हैं



मनुस्मृति विश्व का एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है शायद जिसका बहिष्कार आधुनिक ब्राहमण और शूद्र दोनों ही करते हैं | क्योंकि इसमें कई आपत्तिजनक बातें लिखीं हुईं हैं | उनमें से कुछ ये हैं:

धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छाद्मिका को लोकदम्भका।
बैडालवृत्तिको ज्ञेयो हिंस्त्र सर्वाभिसन्धकः।। मनुस्मृति ४-१९५

अपनी प्रतिष्ठा के लिये धर्म का पाखंड, दूसरों के धन कर हरण करने की इच्छा हिंसा तथा सदैव दूसरों को भड़काने के काम करने वाला ‘बिडाल वृत्ति’ का कहा जाता है।

अधोदृष्टिनैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः।
शठो मिथ्याविलीतश्च बक्रवतवरो द्विजः।। मनुस्मृति, ४-१९६

उस द्विज को बक वृत्ति का माना गया है जो असत्य भाव तथा अविनीत हो तथा जिसकी नजर हमेशा दूसरों को धन संपत्ति पर लगी रहती हो जो हमेशा बुरे कर्म करता है सदैव अपना ही कल्याण की सोचता हो और हमेशा अपने स्वार्थ के लिये तत्पर रहता है।

उपरोक्त श्लोकों से यह सिद्ध हो जाता है कि जो भी भगवाधारी, धर्मरक्षक, पंडा-पुरोहित, दलित (दरिद्र) ऐसे कर्मों में लिप्त हैं, वे सभी अधर्मी हैं और तिरस्कार व बहिष्कार के योग्य हैं | दुर्भाग्य से वर्तमान समाज ऐसे ही महानुभावों को सम्मान व पद प्रतिष्ठा प्रदान करती है | आज ऐसे कर्मों में लिप्त गर्व से सर उठाकर चलते हैं और जो सद्कर्मों में संलिप्त हैं वे इनके अधीन कार्य करने के लिए विवश हैं क्योंकि बहुमत इन्हीं का है और इनके विरुद्ध जाने का अर्थ है, अपनी नौकरी गँवाना, आर्थिक, शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित होना |

प्रमाणित करने के लिए मैं उन अधिकारीयों की तरफ आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा जिन्हें अपनी इमानदारी के पुरुस्कार स्वरुप स्थानान्तरण, व पदाच्युत होने से लेकर अकाल मृत्यु तक भोगना पड़ा | अभी हाल ही में व्यापम केस से जुड़े एक जाँच अधिकारी ५१ वें शिकार बने |

अब आप स्वयं समझ सकते हैं कि जो भी श्रेष्टि (ब्राहमण, क्षत्रीय, वैश्य, शासक और प्रशासनिक अधिकारी) ऐसे कर्मों में लिप्त हैं, प्रजा की भूमि व मौलिक अधिकार छीन रहे हैं पूंजीपतियों के लिए, अनावश्यक टैक्स लगाकर उनके श्रम से अर्जित धन लूट रहे हैं, न्यायायिक संस्थानों को व्यावसायिक संसथान बना रखे हैं, निर्दोषों व निर्धनों को कालकोठरी में डालते हों, लेकिन धनी दोषियों को पलायन का अवसर प्रदान करते हों.... वे सभी मनुस्मृति की दृष्टि में क्या स्थान रखते हैं | ऐसे लोग जो साधू-संन्यासियों का भेस रखकर जनता को ठगते हों, उनकी श्रृद्धा व भक्ति का शोषण करते हों, धर्म और जाति के नाम पर समाज में मतभेद व मनभेद उत्पन्न करते हों, वे सभी मानसिक रूप से विक्षिप्त-शूद्र हैं |

यहाँ मैंने शूद्र शब्द का प्रयोग किया क्योंकि मेरा तर्क कहता है कि शूद्र उन्हें कहा जाता है जो मानसिक रूप से इतने कमजोर हों, कि न तो वे कुछ अविष्कार कर सकते हैं और न ही कोई महत्वपूर्ण निर्णय ले सकते हैं | न तो वे युद्ध कर सकते हैं, न स्वरोजगार और न ही कृषि करने योग्य होते हैं | इसलिए ऐसे लोग नौकर बनने के लिए उपयुक्त होते माने जाते रहे | चूँकि ये पराश्रित जीवन जीने में सुख का अनुभव करते हैं, इसलिए ये अच्छे नौकर सिद्ध होते हैं | पराश्रित तो भिक्षुक (प्रोफेशनल भिखारी नहीं) व साधू-संत व संन्यासी (वास्तविक) भी होते हैं लेकिन वे ब्राहमण होते हैं अर्थात वे समाज को धर्म व जाति के भेदभाव से न केवल मुक्त होने में सहयोगी होते हैं, बल्कि वे समाज को उन तथ्यों व असावधानियों से भी अवगत करवाते हैं जो समाज अपने व्यस्त जीवनचर्या के कारण न तो देख पाता है और न ही समझ पाता है | कुछ पढ़े-लिखे व वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विद्वानों को ये लोग समाज में बोझ दिखाई देते हैं.. वे अपनी जगह सही भी हैं क्योंकि वे इनके महत्व को समझ पाने में असमर्थ हैं और कोई इनको समझा नहीं सकता क्योंकि ये लोग स्वयं ही इतने पढ़-लिख लेते हैं कि किताबी ज्ञान तक ही सीमित रह जाते हैं | ऐसे लोगों को चाहिए कि वे इन्हें न तो कोई आर्थिक सहयोग करें और न ही इनका अपमान | ईश्वर इनकी जीविका के लिए अपना ही कोई रूप भेज देगा जो इनको आर्थिक व अन्य सहयोग प्रदान करेगा | इसलिए पढ़े-लिखे विद्वानों को इनकी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है | चलिए वापस अपने विषय पर लौटते हैं...

कलियुग में अधिकांश शूद्र ही जन्म ले रहे हैं क्योंकि विवाह प्रेम पर आधारित नहीं होता, बल्कि भौतिक सुख-सुविधा, पद-प्रतिष्ठा और राजनैतिक व व्यवसायिक लाभ पर आधारित होता है | आधुनिक समाज की यह मान्यता है कि विवाह से पूर्व प्रेम भ्रम है आकर्षण व कामभावना से ग्रसित होता है जो की प्राकृतिक है लेकिन सामाजिक रूप से मान्य नहीं | क्योंकि समाज प्रकृति विरुद्ध है इसलिए ऐसे विवाहों को स्वीकार नहीं करता | समाज मानता है कि भौतिक, व्यावसायिक, राजनैतिक व आर्थिक लाभ को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और प्रेम सबसे अंतिम विषय है | विवाह के बाद प्रेम हो न हो समाज को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता... और ऐसे ही भौतिकतावादी दंपत्ति से शूद्रों का जन्म होता है | श्रेष्ठ आत्माएं ऐसे संबंधों से ठहरे गर्भ में प्रवेश कर पाने में असमर्थ होते हैं, इसलिए सदियों में कभी कभार ही एडिसन का जन्म होता है, सदियों में कभी कभार ही बुद्धों का जन्म जन्म होता है, सदियों में कभी कभार ही राणा-प्रताप, लक्ष्मी-बाई जैसे प्रजा व राष्ट्र के प्रति समर्पित शासक, नेता व राष्ट्रभक्तों का जन्म होता है |

तो आज अधिकाँश नेता व शासक ही नहीं, प्रजा भी शूद्र है | और यही कारण है कि शूद्रों द्वारा चुने गये नेता व शासक स्वार्थसिद्धि में लिप्त है | यही कारण है कि अधिकांश नेता, प्रशानिक अधिकारी, साधू-संत के भेस में घूम रहे बहुरूपिये, पण्डे-पुरोहित, आर्थिक व सामाजिक रूप से समृद्ध व्यापारीवर्ग और प्राशासनिक व पुलिस अधिकारी आपसी मिली भगत से आम नागरिकों की लूट-खसोट में लिप्त है | यही कारण है कि प्रजा की चीख पुकार वे सुन पाने में असमर्थ हैं | दोष इनका नहीं, दोष उस विवाहित युगलों का है, जिनके लिए भौतिक स्वार्थ सिद्धि परोपकार व प्रेम से अधिक महत्वपूर्ण था | ~विशुद्ध चैतन्य

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