बचपन से जिस सबसे बड़ी समस्या से जूझता रहा था, वह यह कि दुनिया मुझे नहीं समझ पा रही थी और न ही मैं दुनिया से सहमत हो पा रहा था | मेरे पिताजी तो मुझसे कभी भी सहमत नहीं रहे क्योंकि उनकी दृष्टि में मेरी बातें व्यवहारिक नहीं थीं और मैं हमेशा सपनों में खोया रहने वाला बच्चा दिखाई पड़ता था उन्हें | इसलिए कभी मेरी उनसे नहीं पट पायी और हमारे बीच छत्तीस का आँकड़ा ही रहा जब तक हम साथ साथ रहे | यह और बात है कि हर मुसीबत में मेरी सहायता करने के लिए पहुँच जाते थे जब मैं घर से अलग हुआ, लेकिन फिर भी हम इतने करीब नहीं आ पाए जितने कि और बच्चे अपने पिता के करीब होते हैं |
बाहर भी मुझे यही समस्या रही, मेरे सीनियर मेरा सम्मान तो करते थे लेकिन उन्हें लगता था कि मैं सिस्टम को ही बदलना चाहता हूँ | क्योंकि जो कुछ चल रहा था उसे वैसा ही स्वीकारना मेरी फितरत में नहीं था, मुझे नवीनता पसंद थी | इसलिए जल्दी ही हमारे बीच दूरियाँ बढ़ने लगतीं थी और फिर मेरे लिए वहां ठहर पाना कठिन हो जाता था | मुझे नई नौकरी खोजनी पड़ती और फिर...इसी तरह एक नौकरी से दूसरी और फिर तीसरी, न जाने कितनी नौकरियां बदलता चला गया, लेकिन कहीं भी मैं सेटल नहीं हो पाया | मेरे पिताजी इसके लिए मेरे अहंकार को दोषी मानते थे | मैंने कई बार बिलकुल अहंकारविहीन होकर जीने की कोशिश की तो पाया कि मैं तो जीते जी मुर्दा हो गया |
ये दुनिया ये समाज मुझे स्वीकार नहीं पा रही थी और मैं स्वयं को इनके अनुरूप ढाल नहीं पा रहा था | साइकोलॉजिस्ट से मिला तो उसने सलाह दी कि लोगों से घुला मिला करो, तुम दुनिया को नहीं बदल सकते इसलिए तुम्हे खुद को बदलना होगा | सोचा था कि शायद ईश्वर ने कोई एक तो ऐसा बनाया होगा जो मुझे समझ पाए, लेकिन वह भी नहीं मिली | जितनी भी लड़कियों से दोस्ती की वे सभी इसी समाज इसी दुनिया की थीं और जल्दी ही वे मुझसे पीछा छुड़ा कर किसी और का दामन थाम लेतीं |
मेरी कीमत मार्किट में केवल इतनी ही थी कि मैं अपने काम में न केवल इमानदार था, बल्कि उस समय सबसे बेहतर भी था तो उसके कारण लोग मेरा सम्मान करते थे लेकिन मेरा अकेलापन मुझे बेचैन किये हुए था | मैंने २२ वर्ष की आयु से शराब का सेवन शुरू कर दिया था और वह बढ़ते बढ़ते चेन ड्रिंकिंग में बदल गया | अब शराब ही मुझे मेरा सबसे अच्छा दोस्त लगने लगा था और बाकी तो कभी दोस्त बने ही नहीं थे | क्योंकि सब दोस्तों का अपना अपना स्वार्थ था, अपना अपना उद्देश्य था |
फिर एक दिन सबसे हमेशा के लिए दूरी बना लेने की सोची और जो कुछ भी कमाया वह गँवाना शुरू कर दिया | लोगों ने समझा कि मैं नशे में होश खो बैठा हूँ लेकिन मैं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूँ | मुझे समाज से अपने लिए इतनी नफरत पैदा करनी थी कि मैं वापस इस समाज में न लौट पाऊँ | और एक दिन वह भी हो गया और मैं फुटपाथ पर आ गया | फूटपाथ पर आने के बाद पहली बार स्वयं का बोध हुआ | स्वयं से परिचय हुआ | अब मैं वह नहीं था जिसकी वजह से लोग मुझे जानते थे, अब मैं वह था जो मैं हूँ | अपने में मस्त, कुछ मिल गया खाने को तो खा लिया और नहीं तो कई कई दिन तक भूखा रहा |
लेकिन जब मैं यहाँ यानि इस आश्रम में पहुँचा तो मुझे फिर से वही सम्मान वापस मिला जो मैंने खो दिया था | केवल सम्मान ही नहीं वह स्वतंत्रता भी मिली जो मुझे चाहिए थी | क्योंकि अब मैं वह नहीं था जो पहले था, अब मैं दुनिया की परवाह नहीं करता था और न ही कुछ खोने का भय था | सब कुछ खोकर आ रहा था तो न किसी से कोई भय था और न ही किसी से मोह | आश्रम के लोग कुछ भूमाफियाओं से भयभीत थे, लेकिन एक दो बार जब भूमाफियाओं से मेरा आमना सामना हुआ तो आश्रमवासियों का भय निकल गया | भूमाफिया भी अब यहाँ किसी को धमकाने नहीं आते थे और जो मुझे धमका रहे थे, वे भी सब गायब हो गये थे... क्योंकि जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं हो, जिसे मृत्यु का भी भय न हो, उसे कोई भयभीत नहीं कर सकता |
ध्यान, त्राटक का जो अभ्यास मैंने कई वर्षों पहले छोड़ दिया था वह दोबारा शुरू किया | लेकिन यहाँ भी समस्या वही रही कि लोग मुझे नहीं समझ पाए क्योंकि मैं इनके साथ घुल-मिल नहीं पा रहा था | फिर भी यहाँ कोई दबाव नहीं था स्वयं को बदलने का | मैं जैसा हूँ वैसा ही इन्होंने मुझे स्वीकार लिया |
अब इतनी लम्बी यात्रा के बाद जो समझ में आई बात वह यह कि समाज स्वयं कभी कुछ बदलना नहीं चाहता | वह लकीर का फ़कीर है और जो उन्हें उंचाई पर दिखता है उसी के पीछे चल पड़ते हैं |


कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
No abusive language please