ईशनिंदा यानि उस ईष्ट की निंदा, जिसे कोई समुदाय विशेष अपना ईष्ट मानता है | जैसे बौद्धों के ईष्ट, गौतम-बुद्ध, जैनों के ईष्ट महावीर, मुस्लिमों के ईष्ट उनके पैगम्बर, संघी-बजरंगियों के ईष्ट मोदी, कांग्रेसियों के ईष्ट सोनिया, आपियों के ईष्ट केजरीवाल.... तो इसी प्रकार हर समुदाय का अपना-अपना ईष्ट होता है | और कोई उस ईष्ट की निंदा कर दे तो भावनाएं आहत हो जाती हैं | क्योंकि उनका आधार वह ईष्ट ही है, उनका आस्तित्व वह ईष्ट ही है उनका अपना कोई आस्तित्व नहीं है |
कारण केवल इतना ही है, कि ईष्टों के साथ जुड़ी कुछ महान किस्से कहानियाँ हैं, कुछ अच्छे यह बुरे कर्म किये हैं उन ईष्टों ने जिसके कारण पूरी दुनिया उनको जानती है | चूँकि दुनिया उनको जानती है, इसलिए उन ईष्टों के नाम पर खुद की पहचान करवाना आसान हो जाता है, वरना अपनी पहचान ही अँधेरे में रह जाती है | इसलिए ईष्ट निंदा यानि उनकी निंदा जो उन्हें ईष्ट मान रहे हैं | और अपनी निंदा किसी को पसंद नहीं, मुझे भी नहीं |
मैं जिन गुरु के आश्रम में हूँ, यानी मेरे जो आराध्य होने चाहिए गुरु रूप में, मैं उनकी कोई आराधना नहीं करता | क्योंकि आराधना केवल उसकी की जाती है, जो स्वयं से अलग हो | मैंने जब दीक्षा लिया था, तब यह जान चुका था कि मैं ऐसे गुरु के आश्रम में आ चुका हूँ, जो मेरे लिए श्रेष्ठ हैं | जो मुझे बंधन नहीं देते, जो मुझे कूपमंडूक बने रहने के लिए दबाव नहीं देते, जो मेरे अध्यात्मिक उत्थान में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करते | जबकि अन्य किसी भी गुरु या ईस्ट के आश्रम या सम्प्रदाय में ऐसी स्वतंत्रता नहीं है, सिवाय ओशो आश्रम के |
तो यहाँ ईष्ट निंदा नहीं होती और होगी भी तो मैं होऊंगा करने वाला वह भी अपने ही गुरु का | वह इसलिए क्योंकि मैं ठहरा हुआ नहीं हूँ, मैं गुरु के पीछे नहीं हूँ, मैं किसी के पीछे नहीं हूँ, मैं किसी को फ़ॉलो नहीं कर रहा, मैं किसी का अनुयाई नहीं हूँ | मेरे पास कुरान भी है तो गीता भी है, मैं गायत्री मन्त्र भी जपता हूँ और काली और बगुलामुखी भी... लेकिन फिर भी मैं इनमें से किसी से नहीं बंधा हूँ | मैं किसी नियम कानून में नहीं बंधा हूँ | क्योंकि आध्यात्मिक व्यक्ति बंधन में नहीं जी सकता, वह मुक्त ही था और मुक्त ही रहना चाहता है | और जो मुक्त नहीं हैं, वे ईशनिंदा के नाम पर कोर्ट केस करते फिरते हैं, जो मुक्त नहीं हैं, उनका धर्म हमेशा खतरे में पड़ा रहता है यहाँ तक कि नास्तिकों से भी घबरा जाते हैं | उनसे भी उनका धर्म खतरे में पड़ जाता है जो निहत्थे हैं, बिना डंडे, तलवार लिए चलते हैं... उनसे भी उनका धर्म खतरे में पड़ जाता है |
तो अच्छी तरह दिमाग में बिठा लीजिये कि, न तो नास्तिकों को धर्म का कोई ज्ञान है और नहीं धर्मरक्षकों को धर्म का कोई ज्ञान है | ये सभी केवल परम्परा, कर्मकांडों को धर्म मानकर जी रहे हैं | ये लोग सद्पुरुषों, शुभ-आत्माओं, महान दार्शनिकों, खोजियों को अपना ईष्ट बनाये बैठे हैं केवल इसलिए क्योंकि इससे उन्हें लगता है कि वे सुरक्षित हैं | धर्म को किसी नास्तिक या आस्तिक से न तो कोई लाभ है और न ही हानि, धर्म तो सनातन है, सर्वस्व है | वे प्राणी जो वनों में रहते हैं, जो जल में रहते हैं, जो हवा में उड़ते हैं, सभी धर्मानुसार ही जीवनयापन करते हैं | केवल मानव ही है जो कर्मकांडों को धर्म मानकर धर्मविरुद्ध आचरण को आधुनिकता मानकर जीता है | ~विशुद्ध चैतन्य
